मध्य प्रदेश में इंदौर से 55 किमी दूर शिप्रा नदी के तट पर ‘उज्जैन’ (विजय की नगरी) स्थित है. यह भारत के पवित्रतम शहरों तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए पौराणिक मान्यता प्राप्त सात पवित्र या सप्त पुरियों (मोक्ष की नगरी) में से एक माना जाता है. मोक्ष दायिनी अन्य पुरियां (नगर) हैं : अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी (वाराणसी), कांचीपुरम, और द्वारका. पौराणिक मान्यता है कि भगवान शिव ने उज्जैन में ही दानव त्रिपुर का वध किया था. 22 अप्रैल से 21 मई 2016 के बीच उज्जैन के प्राचीन और ऐतिहासिक शहर में कुम्भ आयोजन शुरू होंगे.सिंहस्थ कुम्भ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। यह पर्व बारह वर्षों के अंतराल से मनाया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि में होता है, उस समय सिंहस्थ कुम्भ का पर्व मनाया जाता है।
पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान का महात्यम चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ हो जाता हैं और वैशाख मास की पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होता है। उज्जैन के प्रसिद्ध कुम्भ महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
पूरे देश में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन। उज्जैन में लगने वाले कुम्भ मेलों को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। जब मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु आ जाता है तब उस समय उज्जैन में महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिंहस्थ के नाम से देश भर में कहा जाता है।
सिंहस्थ महाकुम्भ के आयोजन की प्राचीन परम्परा है। इसके आयोजन के विषय में अनेक कथाएँ प्रचलित है। समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत की बूंदें छलकते समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग होते हैं, वहीं कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर ही आयोजन किया जाता है। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे थे। इसी कारण इन ग्रहों का विशेष महत्त्व रहता है और इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ का पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है।
प्रत्येक स्थान पर बारह वर्षों का क्रम एक समान हैं अमृत-कुंभ के लिए स्वर्ग की गणना से बारह दिन तक संघर्ष हुआ था जो धरती के लोगों के लिए बारह वर्ष होते हैं। प्रत्येक स्थान पर कुंभ पर्व कोफ्लिए भिन्न-भिन्न ग्रह सिषाति निश्चित है। उज्जैन के पर्व को लिए सिंह राशि पर बृहस्पति, मेष में सूर्य, तुला राशि का चंद्र आदि ग्रह-योग माने जाते हैं।
महान सांस्कृतिक परम्पराओं के साथ-साथ उज्जैन की गणना पवित्र सप्तपुरियों में की जाती है। महाकालेश्वर मंदिर और पावन क्षिप्रा ने युगों-युगों से असंख्य लोगों को उज्जैन यात्रा के लिए आकर्षित किया। सिंहस्थ महापर्व पर लाखों की संख्या में तीर्थ यात्री और भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के साधु-संत पूरे भारत का एक संक्षिप्त रूप उज्जैन में स्थापित कर देते हैं, जिसे देख कर सहज ही यह जाना जा सकता है कि यह महान राष्ट्र किन अदृश्य प्रेरणाओं की शक्ति से एक सूत्र में बंधा हुआ है।
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सिंहस्थ 2016 (कुम्भ) महापर्व उज्जैन इतिहास
उज्जैन धार्मिक अस्थाओ व परंपरा के सम्मलेन का एक अनूठा शहर जो कि न केवल भारत अपितु समस्त संसार कि धार्मिक अस्थाओ का केंद्र कहा जा सकता है यह वह पवित्र नगरी है जहा ८४ महादेव, सात सागर,९ नारायण ,२ शक्ति पीठो के साथ विश्व मै १२ जोतिलिंगो मै से एक राजाधिराज महाकालेश्वर विराजमान है….
यह वह पवन नगरी है जिसमें गीता जैसे महान ग्रन्थ के उद्बोधक श्री कृष्ण स्वयं शिक्षा लेने आए अपने पैरों कि धुल से पाषणों को भी जीवटी कर देने वाले प्रभु श्री राम स्वयम अपने पिता तर्पण करने शिप्रा तट पर आए यही वह स्थान है जो कि रामघाट कहलाता है इस प्रकार विश्व के एक मात्र राजा जिसने कि सम्पुर्ण भारत वर्ष के प्रत्यक नागरिक को कर्ज मुख्त कर दिया वह महान शासक विक्रमादित्य उज्जैन कि हि पवन भूमि पर जन्मे | पवन सलिला मुक्तिदायिनी माँ शिप्रा यही पर प्रवाहित होती है एवं विश्व का सबसे बड़ा महापर्व महाकुम्ब /सिंहस्थ मेला विश्व के ४ स्थान मै से एक उज्जैन नगर मै लगता है इस नगरी कि महात्मा वर्णन करना उतना हि कठिन है जितना कि आकाश मै तारा गानों कि गिनती करना जय श्री महाकाल !!!
सिंहस्थ कुंभ महापर्व धार्मिक व आध्यात्मिक चेतना का महापर्व है। धार्मिक जागृति द्वारा मानवता, त्याग, सेवा, उपकार, प्रेम, सदाचरण, अनुशासन, अहिंसा, सत्संग, भक्ति-भाव अध्ययन-चिंतन परम शक्ति में विश्वास और सन्मार्ग आदि आदर्श गुणों को स्थापित करने वाला पर्व है। हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन की पावन सरिताओं के तट पर कुंभ महापर्व में भारतवासियों की आत्मा, आस्था, विश्वास और संस्कृति का शंखनाद करती है। उज्जैन और नासिक का कुंभ मनाये जाने के कारण ‘सिंहस्थ’ कहलाते है। बारह वर्ष बाद फिर आने वाले कुंभ के माध्यम से उज्जैन के क्षिप्रा तट पर एक लघु भारत उभरता है।
“ कुम्भा भवति नान्यथा “
विशिष्ट युग में सूर्य ,चंद्र एवं गुरु की स्थिति के अनुसार हरिद्वार,प्रयाग ,नासिक और उज्जैन में ज्योतिष के मान से ग्रहों की स्थिति के अनुसार कुम्भ पर्व मनाये जाने का उल्लेख विष्णु पुराण में मिलता है|
उज्जैन में सिंहस्थ महापर्व के संभंध में सिंहस्थ माहात्म्य में इस प्रकार का प्रमाण में मिलता है|
कुशस्थली तीर्थवरम देवानामपिदुर्लभम |
माधवे धवले पक्षे सिंहे जीवेत्वजे रवौ||
तुला राशौ निशानाथे स्वतिभे पूर्णिमातीथो व्यतिपाते तु संप्राप्ते चंद्रवासरसमयुते|
एतेन दश महायोगा: स्नानामुक्ति : फलप्रदा ||
१) अवन्तिका नगरी २) वैशाख मास ३) शुक्ल पक्ष ४ सिंह राशि में गुरु ५ तुला राशि में चंद्र ७स्वाति नक्षत्र, ८ पूर्णिमा तिथि ९ व्यातिपात १० सोमवार आदि ये दस पुण्य प्रद योग होने परक्षिप्रा नदी में सिंहस्थ पर्व में स्नान करने पर मोक्ष प्राप्ति होती है|
ग्रहों की स्थिति ज्योतिष के मान से इनमे से अधिंकांश योग तो’ प्रति वर्ष प्राप्त हो जाते है, परन्तु सिंह पर बृहस्पति १२ वर्ष में ही आते….
संह्त्रम कार्तिके स्नानं माघे स्नानं शतानि च
वैशाखे नर्मदा कोटि: कुम्भ स्नानेन तत्फलं ||
अश्वमेघ सहस्त्राणि , वाजपेय शातानिच |
लक्षम प्रदक्षिणा भूमया: कुम्भ स्नानेनतत्फलं||
अर्थात हजारों स्नान कार्तिक में किये हो , सेकडो माघ मास में किये हो, करोड़ों बार नर्मदा के स्नान वैशाख में किये हो वह फल एक बार कुम्भमें स्नान करने से मिलता है | हजारों अश्वमेघ , सेकडों वाजपेय यज्ञ करने मेंतथा लाखो प्रदक्षिण पृथ्वी की करनेसे जो फल मिलता है, वह कुम्भ पर्व के स्नान मात्र से मिलता है
भारतीय संस्कृति, आस्था ओर विश्वास के प्रतीक कुंभ का उज्जैन के लिये केवल पौराणिक कथा का आधार ही नहीं, अपितु काल चक्र या काल गणना का वैज्ञानिक आधार भी है। भौगोलिक दृष्टि से अवंतिका-उज्जयिनी या उज्जैन कर्कअयन एवं भूमध्य रेखा के मध्य बिंदु पर अवस्थित है। भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण दर्शन कहाँ होते हैं? इस प्रश्न का सर्वाधिक निर्विवाद उत्तर है- मेले और पर्व। धार्मिक दृष्टि से सिंहस्थ महापर्व की अपनी महिमा है, परंतु इसके समाजशास्त्रीय महत्व से भी इंकार नहीं किया जा सकता। सिंहस्थ सामाजिक परिवर्तन और नियंत्रण की स्थितियों को समझने और तदनुरूप समाज निर्माण का एक श्रेष्ठ अवसर है।
सही अर्थों में इसे—- “द्वादश वर्षीय जन सम्मेलन” कहा जा सकता है।[1]
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आकर्षण–साधू समाज उज्जैन
सिंहस्थ पर्व का सर्वाधिक आकर्षण विभिन्न मतावलंबी साधुओं का आगमन, निवास एवं विशिष्ट पर्वों पर बड़े उत्साह, श्रद्धा, प्रदर्शन एवं समूहबद्ध अपनी-अपनी अनियों सहित क्षिप्रा नदी का स्नान है। लाखों की संख्या में दर्शक एवं यात्रीगण इनका दर्शन करते हैं और इनके स्नान करने पर ही स्वयं स्नान करते हैं। इन साधु-संतों व उनके अखाड़ों की भी अपनी-अपनी विशिष्ट परंपराएँ व रीति-रिवाज हैं।
साधु समाज , उनकी परम्परा तथा विभिन्न अखाड़े—–
भारत अपनी धर्म प्रियता के लिए जाना जाता है| हजारों सालों से भारतवासी धर्म में आस्था रखते आये है| मनुष्य ने स्रष्टि के निर्माण एवं विनाश में किसी अद्रश्य शक्ति के आस्तित्व को इश्वर के रूप में स्वीकार कर उसके समक्ष अपना सर झुकाया तथा कल्याण के लिय ईश्वरीय शक्तिक की पूजा अर्चना प्रारंभ की|
जगद गुरु शंकराचार्य का प्रादुर्भाव—
नवी शताब्दी में जगदगुरु आध्यशंकराचार्य जी का प्रादुर्भाव हुआ| इन्होने दो बार पुरे देश का ब्रह्मण किया|
अपने दार्शनिक सिधान्त अदैतवाद का प्रचार किया| इस प्रकार वेदिक सनातन धरम की पुनः प्रतिष्ठाकी | एक विराट भारतीय हिंदू समाज की स्थापना की और जगतगुरु कहलाये|
इन्होने लोकहित में वैदिक धर्म की धारा अहनीश बहती रहे इसे सुनिश्चित करते हुई देश की चारो दिशाओ में चार मठ – ज्योतिर्मठ, श्रंगेरिमाथ, शारदामठ तथा गोवर्धन कायम किये| इसके साथ ही सनातन धर्म के सरंक्षण हेतु एवं उसे गतिमान बनाये रखने की दृष्टि से पारिवारिक बंधन से मुक्त, नि: स्वार्थ,निस्पृह नागा साधुओ/ संनासियोंका पुनर्गठन किया| इनके संगठनो में व्यापक अनुशासन स्थापित किया और देश में दशनाम
संयास प्रणाली चालू की| इसका विधान “ मठाम्नाय” नाम से अंकित किया |
सांसियों के संघो में दीक्षा के बाद संयासी द्वारा जो नाम ग्रहण किये जाते है तथा उनके साथ जो इस शब्द जोड़े जाते है उन्ही के कारण दशनामी के नाम से संयासी प्रसिद्ध हूऐ और उनके ये दस नाम जिन्हें योग पट्ट भी कहा जाता है,प्रसिद्ध हुऐ | संनासियों के नाम के जोड़े जाने वाले ये योग पटट भी कहा जाता है,प्रसिद्ध हुऐ|संनासियों के नाम के आगे जोड़े जाने वाले ये योग पटट शब्द है- गिरी ,पूरी,भारती, वन ,सागर,पर्वत,तीर्थ,आश्रमऔर सरस्वती|
आचार्य शंकर द्वारा रचित मठामनाय ग्रन्थके अनुसार साधु समाज के संघों के पदाधिकारियों की व्यवस्था
निम्नअनुसार से की गई है—–
01) तीर्थ – तत्वमसि आदि महाकाव्य त्रिवेणी – संगम – तीर्थ के सामान है जो सन्यासी इसे भली –भांति समझ लेते है, उन्हें तीर्थ कहते है|
02) आश्रम – जो व्यक्ति सन्यास –आश्रम में पूर्णतया समर्पित है और जिसे कोई आशा अपने बंध में’ नहीं
बांध सकती वह व्यक्ति आश्रम है|
03) वन- जो सुन्दर ऐकाकी ,निर्जन वन में आशा बंधन से अलग होकर वास करते है, उस सन्यासी को “ वन् “ कहते है|
04) गिरी – जो सन्यासी वन में वास करने वाला एवं गीता के अध्ययन में लगा रहने वाला,गंभीर, निश्चल बुद्धि वाले सन्यासी “गिरी” कहलाते है|
05) भारती – जो सन्यासी विद्यावान ,बुद्धिमान , है, जो दुःख कष्ट के बोझ को नहीं जानते है या घबराते नहीं वे संयासी “भारती” कहलाते है|
06) सागर – जो सन्यासी समुद्र की गंभीरता एवं गहराई को जानते हुऐ भी उसमे डूबकी लगाकर ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक होते है, वे सन्यासी सागर कहलाते है|
07) पर्वत- जो सन्यासी पहाडो की गुफा में रहकर ज्ञान प्राप्त का इच्छुक होते है, सन्यासी “ पर्वत “ कहलाते है|
08) सरस्वती – जो सन्यासी सदैव स्वर के ज्ञान में निरंतर लिन रहते है और स्वर के स्वरुप की विशिष्टविवेचना करते रहते है तथा संसाररूपी असारता अज्ञानता को दूर करने में लगेरहते है ऐसे सन्यासी सरस्वती कहलाते है|
विभिन्न अखाड़े और उनका विधान—–
दशनामी साधु समाज के ७ प्रमुख अखाडो का जो विवरण आगे दिया गया है वह श्री यदुनाथ सरकार
द्वारा लिखित पुस्तक” नागे संनासियों का इतिहास “ पर आधारित है |
इनमे से प्रत्यक अखाड़े का अपना स्वतंत्र संघठन है इनका अपना निजी लावाजमा होता है , जिसमे डंका , भगवा निशान, भाला,छडी ,वाध,हाथी,घोड़े,पालकी, आदि होते है| इन अखाडों की सम्पति का प्रबंध श्री पंच
द्वारानिर्वाचित आठ थानापति महंतो तथा आठ प्रबंधक सचिवों के जिम्मे रहती है | इनकी संख्या घट बढ़ सकती है|
इनके अखाडों का पृथक पृथक विवरण निम्न अनुसार है-
01—-श्री पंच दशनाम जुना अखाडा——- दशनामी साधु समाज के इस अखाड़े की स्थापना कार्तिक शुक्ल दशमी मंगलवार विक्रम संवत १२०२ को उत्तराखंड प्रदेश में कर्ण प्रयाग में हुई | स्थापना के समय इसे भैरव अखाड़े के नाम से नामंकित किया गया था | बहुत पहले स्थापित होने के कारण ही संभवत: इसे जुना अखाड़े के नाम से प्रसिद्ध मिली | इस अखाड़े में शैव नागा दशनामी साधूओ की जमात तो रहती ही है परंतु इसकी विशेषता भी है की इसके निचे अवधूतानियो का संघटन भी रहता है इसका मुख्य केंद्र बड़ा हनुमान घाट ,काशी (वाराणसी, बनारस) है | इस अखाड़े के इष्ट देव श्री गुरु दत्तात्रय भगवान है जो त्रिदेव के एक अवतार माने जाते है |
02——श्री पंचायती अखाडा महनिर्माणी——दशनामी साधुओ के श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े की स्थापना माह अघहन शुक्ल दशमी गुरुवार विक्रम संवत को गढ़कुंडा (झारखण्ड) स्थित श्री बैजनाथ धाम में हुई | इस अखाड़े का मुख्य केंद्र दारा गंज प्रयाग (इलाहाबाद ) में है| इस अखाड़े के] इष्ट देव राजा सागर के पुत्रो को भस्म करने वाले श्री कपिल मुनि है | इसके आचार्य मेरे दीक्षा गुरु ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर श्री श्री 1008 स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज थे,जिनका एक सड़क दुर्घटना में वर्ष 2013 में महाप्रयाण हो गया था | सूर्य प्रकाश एवं भैरव प्रकाश इस अखाड़े की ध्वजाए है| जिन्हें अखाडों के साधु संतो द्वारा देव स्वरुप माना जाता है| इस अखाड़े में बड़े बड़े सिद्ध महापुरुष हुए| जिसमे दशनामी अखाडोंमें इस अखाड़े का प्रथम स्थान है |
सर्व श्री महंत प्रकाश पूरी एवं श्री महंत जोगिन्दरगिरी जी इस अखाड़े’ के सचिव है| वर्तमान आचार्य महामंडलेश्वर जी का नाम मेरी जानकारी में नहीं हैं…क्षमा करें..
03—–तपो निधि श्री निरंजनी अखाडा पंचायती—- दशनामी साधुओ के तपोनिधि श्री निरंजनी अखाडा पंचायती अखाडा की स्थापना कृष्ण पक्ष षष्टि सोमवार विक्रम सम्वत ९६० को कच्छ (गुजरात) के भांडवी नामक स्थान पर हुई| इसअखाड़े का मुख्य केंद्र मायापूरी हरिद्वार (है ) | इस अखाड़े के इष्ट देव भगवान कार्तिकेय है| इसके आचार्य महामंडलेश्वर श्री पूर्णानन्द गिरी जी महाराज है |
04——-पंचायती अटल अखाडा—– इस अखाड़े’ की स्थापना माह मार्गशीर्ष शुक्ल ४ रविवार’ विक्रम संवत ७०३ को गोंडवाना में हुई | इस अखाडे के इष्टदेव श्री गणेश जी है |
05—–तपोनिधि श्री पंचायती आनंद अखाडा—— दशनामी तपोनिधि श्री पंचायती आनंद अखाड़े’ की’ स्थापना’ माह शुक्ल चतुर्थी रविवार विक्रम संवत ९१२ कोबरार प्रदेश में हुई | इस अखाड़े के’ इष्ट’देव’ भगवान श्री सूर्यनारायण’ है’ तथा इसके’ आचार्य महामंडलेश्वर’ स्वामी श्री देवानंद सरस्वती जी महाराज है| अध्यक्ष श्री महंत सागरानन्द जी एवं महंत शंकरानंद जी है | इस अखाड़े का प्रमुख केंद्र कपिल धारा काशी (बनारस ) है | इस अखाड़े के केंद्रीय स्थान (कपिल धारा) के प्रमुख’ सचिव श्री महंत कन्हीयापूरी जी एवं श्री महंतचंचलगिरी है |
06—–श्री पंचदशनाम आह्वान अखाडा—- इस अखाड़े की स्थापना माह ज्येष्ट कृष्णपक्ष नवमी शुक्रवार का विक्रम संवत ६०३ में’ हुई’…. |इस अखाड़े के’ इष्ट’देव’ सिद्धगणपति भगवान है| इसका मुख्य केंन्द्र दशाशवमेघ घाट काशी (बनारस) है’| यह’ अखाडा श्री पंच दशनाम जुना अखाडा के’ आचार्य महामंडलेश्वर स्वामीश्री शिवेंद्र पूरी जी’ महाराज तथा सचिवश्रीमहंतशिव शंकर जी महाराजएवं महंत’ प्रेमपूरीजी’ महाराज है|
07—-श्री पंचअग्नि अखाडा – श्री पंच अग्नि अखाड़े की स्थापना’और उसके’ विकास की एक अपनी गतिशील परम्परा है’| उल्लेखनीय यह है’ है की दशनामी साधु समाज के अखाडों की व्यवस्था में सख्त अनुशासन कायम रखने की दृष्टि से इलाहाबाद कुम्भ तथा अर्धकुम्भ एवं हरिद्वार कुम्भ’ में इन अखाडों में श्री महंतो का नया चुनाव होता है|
08 —–श्री उदासीन अखाडा’ – काम , क्रोध पर जीवन में विजय प्राप्त करने वाले माह्नुभाव निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख , आराम, और ज्ञान धारण करते हुऐ पूर्ण , एकी भाव से ब्रह् में लिन रहते है | उदासीन साधू के मन में निजी स्वार्थ की भावना का भी लूप होता’ है|
जानिए उज्जैन का इतिहास—-
पुण्य-सलिला शिप्रा तट पर स्थित भारत की महाभागा अनादि नगरी उज्जयिनी को भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक काया का मणिपूर चक्र माना गया है। इसे भारत की मोक्षदायिका सप्त प्राचीन पुरियों में एक माना गया है। प्राचीन विश्व की याम्योत्तार ;शून्य देशान्तरध्द रेखा यहीं से गुजरती थी। विभिन्न नामों से इसकी महिमा गाई गयी है। महाकवि कालिदास द्वारा वर्णित ”श्री विशाला-विशाला” नगरी तथा भाणों में उल्लिखित ”सार्वभौम” नगरी यही रही है। इस नगरी से ऋषि सांदीपनि, महाकात्यायन, भास, भर्तृहरि, कालिदास- वराहमिहिर- अमरसिंहादि नवरत्न, परमार्थ, शूद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदन्त, हरिषेण, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, जदरूप आदि संस्कृति-चेता महापुरुषों का घनीभूत संबंध रहा है। वृष्णि-वीर कृष्ण-बलराम, चण्डप्रद्योत, वत्सराज उदयन, मौर्य राज्यपाल अशोक सम्राट् सम्प्रति, राजा विक्रमादित्य, महाक्षत्रप चष्टन व रुद्रदामन, परमार नरेश वाक्पति मुंजराज, भोजदेव व उदयादित्य, आमेर नरेश सवाई जयसिंह, महादजी शिन्दे जैसे महान् शासकों का राजनैतिक संस्पर्श इस नगरी को प्राप्त हुआ है।
मुगल सम्राट् अकबर, जहाँगीर व शाहजहाँ की भी यह चहेती विश्राम-स्थली रही है।पुण्य-सलिला शिप्रा तट पर बसी अवन्तिका अनेक तीर्थों की नगरी है। इन तीर्थों पर स्नान, दान, तर्पण, श्राध्द आदि का नियमित क्रम चलता रहता है। ये तीर्थ सप्तसागरों, तड़ागों, कुण्डों, वापियों एवं शिप्रा की अनेक सहायक नदियों पर स्थित रहे हैं। शिप्रा के मनोरम तट पर अनेक दर्शनीय व विशाल घाट इन तीर्थ-स्थलों पर विद्यमान है जिनमें त्रिवेणी-संगम, गोतीर्थ, नृसिंह तीर्थ, पिशाचमोचन तीर्थ, हरिहर तीर्थ, केदार तीर्थ, प्रयाग तीर्थ, ओखर तीर्थ, भैरव तीर्थ, गंगा तीर्थ, मंदाकिनी तीर्थ, सिध्द तीर्थ आदि विशेष उल्लेखनीय है। प्रत्येक बारह वर्षों में यहाँ के सिंहस्थ मेले के अवसर पर लाखों साधु व यात्री स्नान करते हैं।
सम्पूर्ण भारत ही एक पावन क्षेत्र है। उसके मध्य में अवन्तिका का पावन स्थान है। इसके उत्तार में बदरी-केदार, पूर्व में पुरी, दक्षिण में रामेश्वर तथा पश्चिम में द्वारका है जिनके प्रमुख देवता क्रमश: केदारेश्वर, जगन्नाथ, रामेश्वर तथा भगवान् श्रीकृष्ण हैं। अवन्तिका भारत का केन्द्रीय क्षेत्र होने पर भी अपने आप में एक पूर्ण क्षेत्र है, जिसके उत्तार में दर्दुरेश्वर, पूर्व में पिंगलेश्वर, दक्षिण में कायावरोहणेश्वर तथा पश्चिम में विल्वेश्वर महादेव विराजमान है। इस क्षेत्र का केन्द्र-स्थल महाकालेश्वर का मन्दिर है। भगवान् महाकाल क्षेत्राधिपति माने गये हैं। इस प्रकार भगवान् महाकाल न केवल उज्जयिनी क्षेत्र अपितु सम्पूर्ण भारत भूमि के ही क्षेत्राधिपति है। प्राचीन काल में उज्जयिनी एक सुविस्तृत महाकाल वन में स्थित रही थी। यह वन प्राचीन विश्व में विश्रुत अवन्ती क्षेत्र की शोभा बढ़ाता था।
स्कन्द पुराण के अवन्तिखण्ड के अनुसार इस महावन में अति प्राचीन काल में ऋषि, देव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि की अपनी-अपनी तपस्या-स्थली रही है। अत: वहीं पर महाकाल वन में भगवान् शिव ने देवोचित शक्तियों से अनेक चमत्कारिक कार्य सम्पादित कर अपना महादेव नाम सार्थक किया। सहस्रों शिवलिंग इस वन में विद्यमान थे। इस कुशस्थली में उन्होंने ब्रह्मा का मस्तक काटकर प्रायश्चित्ता किया था तथा अपने ही हाथों से उनके कपाल का मोचन किया था। महाकाल वन एवं अवन्तिका भगवान् शिव को अत्यधिक प्रिय रहे हैं, इस कारण वे इस क्षेत्र को कभी नहीं त्यागते। अन्य तीर्थों की अपेक्षा इस तीर्थ को अधिक श्रेष्टत्व मिलने का भी यह एक कारण है।
इसी महाकाल वन में ब्रह्मा द्वारा निवेदित भगवान् विष्णु ने उनके द्वारा प्रदत्ता कुशों सहित जगत् कल्याणार्थ निवास किया था। उज्जैन का कुशस्थली नाम इसी कारण से पड़ा। इस कारण यह नगरी ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन तीनों देवों का पुण्य-निवेश रही है।
‘उज्जयिनी” नामकरण के पीछे भी इस प्रकार की पौराणिक गाथा जुड़ी है। ब्रह्मा द्वारा अभय प्राप्त कर त्रिपुर नामक दानव ने अपने आतंक एवं अत्याचारों से देवों एवं देव-गण समर्पित जनता को त्रस्त कर दिया। आखिरकार समस्त देवता भगवान् शिव की शरण में आये। भगवान् शंकर ने रक्तदन्तिका चण्डिका देवी की आराधना कर उनसे महापाशुपतास्त्र प्राप्त किया, जिसकी सहायता से वे त्रिपुर का वध कर पाये। उनकी इसी विजय के परिणाम स्वरूप इस नगरी का नाम उज्जयिनी पड़ा। इसी प्रकार अंधक नामक दानव को भी इसी महाकाल वन में भगवान् शिव से मात खाना पड़ी, ऐसा मत्स्य पुराण में उल्लेख है।
परम-भक्त प्रह्लाद ने भी भगवान् विष्णु एवं शिव से इसी स्थान पर अभय प्राप्त किया था। भगवान् शिव की महान् विजय के उपलक्ष्य में इस नगरी को स्वर्ग खचित तोरणों एवं यहॉ के गगनचुम्बी प्रासादों को स्वर्ग-शिखरों से सजाया गया था। अवन्तिका को इसी कारण कनकशृंगा कहा गया। कालान्तर में इस वन का क्षेत्र उज्जैन नगर के तेजी से विकास एवं प्रसार के कारण घटता गया। कालिदास के वर्णन से ज्ञात होता है कि उनके समय में महाकाल मन्दिर के आसपास केवल एक उपवन था, जिससे गंधवती नदी का पवन झुलाता रहता था। समय की विडम्बना! आज अवन्तिका उस उपवन से भी वंचित है। गरूर पुराण के अनुसार पृथ्वी पर सात मोक्ष दायीनी पूरिया है उनमे अव्न्तिकापूरी सर्वश्रेष्ठ है| उज्जैन का महत्व समस्त पूरियो मे एक तिल अधिक है|
अयोध्या मथुरा , माया, काशी कांची अवन्तिका|
पूरी दौरावतिचैव सअप्तेता: मोक्षदाईका: ||
यह नगर द्वादश ज्योति लिंगों मे से एक, सप्त पूरियो मे से एक मोक्षदायिनी पुरी, दाव्द्श व चौरासी दोनों शक्तिपीठों से सम्प्पन (गढ़कालिका एवं हरसिद्धि) एवं पवित्र कुम्भ मेले लगने वाले चार शहरो मे से एक नगर उज्जैन है |राजा भर्तहरी कि गुफा भी यही पर है |
ऐसी मान्यता है कि उज्जैनी भगवान विष्णु का पद कमल है|
“ विष्णुः पादाम्वंतिका”|
इस शहर कि महिमा आपार है , त्रेता युग मे भगवान श्री राम स्वयं अपनें पिताश्री का श्राद्ध करने उज्जैन आये थे| और जहा श्राद्ध कर्म किया था वही घाट राम घाट कहलाने लगा| इसी राम घाट पर सिंहस्थ महापर्व का शाही स्नान होता है| धार्मिक तथा एतिहासिक दोंनो द्रष्टि से उज्जैन का महत्व उल्लेखिनिय है|
पुराणों के अनुसार उज्जैन के अनेक नाम प्रचलित रहे है—- १ उज्जीनी,२ प्रतिकल्प ,३ पदमावती ,४ अवन्तिका ५ भोगवती ६ अमरावती ७ कुमुद्वती ८ विषाला ९ कनकश्रंगा १० कुशस्थली आदि | यह कभी अवंति जनपद का प्रमुख नगर था एवं राजधानी भी रहा था अत: यह नगरी अवन्तिकापुरी कहलाई|
उज्जैनी शब्द का अर्थ विजयनी होता है | जिसका पाली रूपांतर उज्जैन है | वेसे उज्जैयिनी संस्कृत शब्द हे इसका अर्थ हे उत् + जयिनी अर्थात उत्कर्ष के साथ विजय देने वाली इसी लिए कहा गया हे की उज्जैन एक आकाश की तरह हे जिसकी गुणों का कभी बखान नि किया जा सकता….
उज्जैन प्रमाणिक इतिहास—–
उज्जैन की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई.सन 600 वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। उस समय चंद्रप्रद्योत नामक सम्राट सिंहासनारूत्रढ थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था…
मौर्य साम्राज्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य यहाँ आया था. उसका पुत्र अशोक यहाँ का राज्यपाल रहा था। उसकी एक भार्या वेदिसा देवी से उसे महेंद्र और संघमित्रा जैसी संतान प्राप्त हुई जिसने कालांतर में श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था. मौर्य साम्राज्य के अभुदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार के पुत्र अशोक उज्जयिनी के समय नियुक्त हुए। बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक ने उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली और उज्जयिनी का सर्वांगीण विकास कियां सम्राट अशोकके पश्चात उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढाव देखा।
मौर्य साम्राज्य का पतन मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उज्जैन शकों और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन गया। शकों के पहले आक्रमण को उज्जैन के वीर विक्रमादित्य के नेतृत्व में यहाँ की जनता ने प्रथम सदी ईसा पूर्व विफल कर दिया था। कालांतर में विदेशी पश्चिमी शकों ने उज्जैन हस्त गत कर लिया। चस्टान व रुद्रदमन इस वंश के प्रतापी व लोक प्रिय महाक्षत्रप सिद्ध हुए। गुप्त साम्राज्य चौथी शताब्दी ई. में गुप्तों और औलिकरों ने मालवा से इन शकों की सत्ता समाप्त कर दी। शकों और गुप्तों के काल में इस क्षेत्र का अद्वितीय आर्थिक एवं औद्योगिक विकास हुआ।
छठी से दसवीं सदी तक उज्जैन कलचुरियों, मैत्रकों, उत्तरगुप्तों, पुष्यभूतियों , चालुक्यों, राष्ट्रकूटों व प्रतिहारों की राजनैतिक व सैनीक स्पर्धा का दृश्य देखता रहा.।
सातवीं शताब्दी में उज्जैन कन्नौज के हर्षवर्धन साम्राज्य में विलीन हो गया। उस काल में उज्जैन का सर्वांगीण विकास भी होता रहा। सन् ६४८ ई. में हर्ष वर्धन की मृत्यु के पश्चात नवी शताब्दी तक उज्जैन परमारों के आधिपत्य में आया जो गयारहवीं शताब्दी तक कायम रहा इस काल में उज्जैन की उन्नति होती रही। इसके पश्चात उज्जैन चौहान और तोमर राजपूतों के अधिकारों मे आ गया। सन १००० से १३०० ई.तक मालवा परमार-शक्ति द्वारा शासित रहा। काफी समय तक उनकी राजधानी उज्जैन रही. इस काल में सीयक द्वितीय, मुंजदेव, भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन जैसे महान शासकों ने साहित्य, कला एवं संस्कृति की अभूतपूर्व सेवा की. दिल्ली सल्तनत दिल्ली के दास एवं खिलजी सुल्तानों के आक्रमण के कारण परमार वंश का पतन हो गया.
सन् १२३५ ई. में दिल्ली का शमशुद्दीन इल्तमिश विदिशा विजय करके उज्जैन की और आया यहां उस क्रूर शासक ने ने उज्जैन को न केवल बुरी तरह लूटा अपितु उनके प्राचीन मंदिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों का वैभव भी नष्ट किया। सन १४०६ में मालवा दिल्ली सल्तनत से मुक्त हो गया और उसकी राजधानी मांडू से धोरी, खिलजी व अफगान सुलतान स्वतंत्र राज्य करते रहे। मुग़ल सम्राट अकबर ने जब मालवा पर किया तो उज्जैन को प्रांतीय मुख्यालय बनाया गया. मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब यहाँ आये थे। मराठों का अधिकार सन् १७३७ ई. में उज्जैन सिंधिया वंश के अधिकार में आया उनका सन १८८० ई. तक एक छत्र राज्य रहा जिसमें उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। सिंधिया वंश की राजधानी उज्जैन बनी। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोध्दार कराया। इस वंश के संस्थापक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने वर्तमान महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया.
सन १८१० में सिंधिया राजधानी ग्वालियर ले जाई गयी किन्तु उज्जैन का संस्कृतिक विकास जारी रहा। १९४८ में ग्वालियर राज्य का नवीन मध्य भारत में विलय हो गया।
उज्जयिनी में आज भी अनेक धार्मिक पौराणिक एवं ऐतिहासिक स्थान हैं जिनमें भगवान महाकालेश्वर मंदिर, गोपाल मंदिर, चौबीस खंभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिध्दिमां, गत्रढकालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिध्दवट, बोहरो का रोजा, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवगृह मंदिर, भूखी माता, भर्तृहरि गुफा, पीरमछन्दर नाथ समाधि, कालिया देह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश आदि प्रमुख हैं।
आज का उज्जैन वर्तमान उज्जैन नगर विंध्यपर्वतमाला के समीप और पवित्र तथा ऐतिहासिक क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से 1678 फीट की ऊंचाई पर 23डिग्री.50′ उत्तर देशांश और 75डिग्री .50’ पूर्वी अक्षांश पर स्थित है। नगर का तापमान और वातावरण समशीतोष्ण है। यहां की भूमि उपजाऊ है। कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है। कालिदास ने लिखा है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन में हैं और समुद्रों के पास सिर्फ उनका जल बचा है।
उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मीठी मालवी बोली है। हिंदी भी प्रयोग में है। उज्जैन इतिहास के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है। क्षिप्रा के अंतर में इस पारम्परिक नगर के उत्थान-पतन की निराली और सुस्पष्ट अनुभूतियां अंकित है। क्षिप्रा के घाटों पर जहां प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा बिखरी पडी है, असंख्य लोग आए और गए। रंगों भरा कार्तिक मेला हो या जन-संकुल सिंहस्थ या दिन के नहान, सब कुछ नगर को तीन और से घेरे क्षिप्रा का आकर्षण है। उज्जैन के दक्षिण-पूर्वी सिरे से नगर में प्रवेश कर क्षिप्रा ने यहां के हर स्थान सेअपना अंतरंग संबंध स्थापित किया है।
यहां त्रिवेणी पर नवगृह मंदिर है और कुछ ही गणना में व्यस्त है। पास की सडक आपको चिन्तामणि गणेश पहुंचा देगी। धारा मुत्रड गई तो क्या हुआ? ये जाने पहचाने क्षिप्रा के घाट है, जो सुबह-सुबह महाकाल और हरसिध्दि मंदिरों की छाया का स्वागत करते है। क्षिप्रा जब पूर आती है तो गोपाल मंदिर की देहली छू लेती है। दुर्गादास की छत्री के थोडे ही आगे नदी की धारा नगर के प्राचीन परिसर के आस-पास घूम जाती है। भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका का क्षेत्र पार कर नदी मंगलनाथ पहुंचती है।
मंगलनाथ का यह मंदिर सान्दीपनि आश्रम और निकट ही राम-जनार्दन मंदिर के सुंदर दृश्यों को निहारता रहता है। सिध्दवट और काल भैरव की ओर मुत्रडकर क्षिप्रा कालियादेह महल को घेरते हुई चुपचाप उज्जैन से आगे अपनी यात्रा पर बढ जाती है। कवि हों या संत, भक्त हों या साधु, पर्यटक हों या कलाकार,पग-पग पर मंदिरों से भरपूर क्षिप्रा के मनोरम तट सभी के लिए समान भाव से प्रेरणाम के आधार है।
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श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा—-
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के उज्जैन जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का पुराणों और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में ‘उज्जयिनी’ तथा ‘अवन्तिकापुरी’ के नाम से उल्लेख किया गया है। यह स्थान मालवा क्षेत्र में स्थित क्षिप्रा नदी के किनारे विद्यमान है। अवन्तीपुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है-
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
महाराजा विक्रमादित्य द्वारा निर्माण—–
इसी महाकालेश्वर की नगरी में महाराजा विक्रमादित्य ने चौबीस खम्बों का दरबार-मण्डप बनवाया था। मंगल ग्रह का जन्मस्थान मंगलश्वेर भी यहीं स्थित है। इतिहास प्रसिद्ध भर्तृहरि की गुफा तथा महर्षि सान्दीपनि का आश्रम यहीं विराजमान है। श्री कृष्णचन्द्र और बलराम जी ने इसी सान्दीपनि आश्रम में विद्या का अध्ययन किया था। इसी उज्जयिनी नगरी में परम प्रतापी महाराज वीर विक्रमादित्य की राजधानी थी। जब सिंह राशि पर बृहस्पति ग्रह का आगमन होता है, तो यहाँ प्रत्येक बारह वर्ष पर महाकुम्भ का स्नान और मेला लगता है।
शिव महापुराण में वर्णित कथा—–
समस्त देहधारियों को मोक्ष प्रदान करने वाली एक प्रसिद्ध और अत्यन्त अवन्ति नाम की नगरी है। लोक पावनी परम पुण्यदायिनी और कल्याण-कारिणी वह नगरी भगवान शिव जी को अत्यन्त प्रिय है। उसी पवित्र पुरी में शुभ कर्मपरायण तथा सदा वेदों के स्वाध्याय में लगे रहने वाले एक उत्तम ब्राह्मण रहा करते थे। वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे। भगवान शंकर के भक्त वे ब्राह्मण शिव जी की अर्चना-वन्दना में तत्पर रहा करते थे। वे प्रतिदिन पार्थिव लिंग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे। हमेशा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने में तत्पर उस ब्राह्मण देवता का नाम ‘वेदप्रिय’ था। वेदप्रिय स्वयं ही शिव जी के अनन्य भक्त थे, जिसके संस्कार के फलस्वरूप उनके शिव पूजा-परायण ही चार पुत्र हुए। वे तेजस्वी तथा माता-पिता के सद्गुणों के अनुरूप थे। उन चारों पुत्रों के नाम ‘देवप्रिय’, ‘प्रियमेधा’, ‘संस्कृत’ और ‘सुवृत’ थे।
रत्नमाल पर्वत पर ‘दूषण’ नाम वाले धर्म विरोधी एक असुर ने वेद, धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण कर दिया। उस असुर को ब्रह्मा से अजेयता का वर मिला था। सबको सताने के बाद अन्त में उस असुर ने भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के उन पवित्र और कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी। उस असुर की आज्ञा से चार भयानक दैत्य चारों दिशाओं में प्रलयकाल की आग के समान प्रकट हो गये। उनके भयंकर उपद्रव से भी शिव जी पर विश्वास करने वाले वे ब्राह्मणबन्धु भयभीत नहीं हुए। अवन्ति नगर के निवासी सभी ब्राह्मण जब उस संकट में घबराने लगे, तब उन चारों शिवभक्त भाइयों ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘आप लोग भक्तों के हितकारी भगवान शिव पर भरोसा रखें।’ उसके बाद वे चारों ब्राह्मण-बन्धु शिव जी का पूजन कर उनके ही ध्यान में तल्लीन हो गये।
सेना सहित दूषण ध्यान मग्न उन ब्राह्मणों के पास पहुँच गया। उन ब्राह्मणों को देखते ही ललकारते हुए बोल उठा कि इन्हें बाँधकर मार डालो। वेदप्रिय के उन ब्राह्मण पुत्रों ने उस दैत्य के द्वारा कही गई बातों पर कान नहीं दिया और भगवान शिव के ध्यान में मग्न रहे। जब उस दुष्ट दैत्य ने यह समझ लिया कि हमारे डाँट-डपट से कुछ भी परिणाम निकलने वाला नहीं है, तब उसने ब्राह्मणों को मार डालने का निश्चय किया।
उसने ज्योंही उन शिव भक्तों के प्राण लेने हेतु शस्त्र उठाया, त्योंही उनके द्वारा पूजित उस पार्थिव लिंग की जगह गम्भीर आवाल के साथ एक गडढा प्रकट हो गया और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। दुष्टों का विनाश करने वाले तथा सज्जन पुरुषों के कल्याणकर्त्ता वे भगवान शिव ही महाकाल के रूप में इस पृथ्वी पर विख्यात हुए। उन्होंने दैत्यों से कहा- ‘अरे दुष्टों! तुझ जैसे हत्यारों के लिए ही मैं ‘महाकाल’ प्रकट हुआ हूँ। जल्दी इन ब्राह्मणों के समीप से दूर भाग जाओ।
इस प्रकार धमकाते हुए महाकाल भगवान शिव ने अपने हुँकार मात्र से ही उन दैत्यों को भस्म कर डाला। दूषण की कुछ सेना को भी उन्होंने मार गिराया और कुछ स्वयं ही भाग खड़ी हुई। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। जिस प्रकार सूर्य के निकलते ही अन्धकार छँट जाता है, उसी प्रकार भगवान आशुतोष शिव को देखते ही सभी दैत्य सैनिक पलायन कर गये। देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी दन्दुभियाँ बजायीं और आकाश से फूलों की वर्षा की। उन शिवभक्त ब्राह्मणों पर अति प्रसन्न भगवान शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘मै महाकाल महेश्वर तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ, तुम लोग वर मांगो।’
महाकालेश्वर की वाणी सुनकर भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहा- ‘दुष्टों को दण्ड देने वाले महाकाल! शम्भो! आप हम सबको इस संसार-सागर से मुक्त कर दें। हे भगवान शिव! आप आम जनता के कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए विराजिए। प्रभो! आप अपने दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें।’
भगवान शंकर ने उन ब्राह्माणों को सद्गति प्रदान की और अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए उस गड्ढे में स्थित हो गये। उस गड्ढे के चारों ओर की लगभग तीन-तीन किलोमीटर भूमि लिंग रूपी भगवान शिव की स्थली बन गई। ऐसे भगवान शिव इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपासना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को प्राप्त करता है-
महाकालेश्वरो नाम शिवः ख्यातश्च भूतले।
तं दुष्ट्वा न भवेत् स्वप्ने किंचिददुःखमपि द्विजाः।।
यं यं काममपेदयैव तल्लिगं भजते तु यः ।
तं तं काममवाप्नेति लभेन्मोक्षं परत्र च[1]।।
अन्य कथानक—–
उज्जयिनी नगरी में महान शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय चन्द्रसेन नामक एक राजा थे। उन्होंने शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन कर उनके रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया था। उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के पार्षदों (गणों) में अग्रणी (मुख्य) मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के मित्र बन गये। मणिभद्र जी ने एक बार राजा पर अतिशय प्रसन्न होकर राजा चन्द्रसेन को चिन्तामणि नामक एक महामणि प्रदान की। वह महामणि कौस्तुभ मणि और सूर्य के समान देदीप्यमान (चमकदार) थी। वह महा मणि देखने, सुनने तथा ध्यान करने पर भी, वह मनुष्यों को निश्चित ही मंगल प्रदान करती थी।
राजा चनद्रसेन के गले में अमूल्य चिन्तामणि शोभा पा रही है, यह जानकार सभी राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया। चिन्तामणि के लोभ से सभी राजा क्षुभित होने लगे। उन राजाओं ने अपनी चतुरंगिणी सेना तैयार की और उस चिन्तामणि के लोभ में वहाँ आ धमके। चन्द्रसेन के विरुद्ध वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए थे और उनके साथ भारी सैन्यबल भी था। उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके रणनीति तैयार की और राजा चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दिया। सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया। अपनी पुरी को चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरी हुई देखकर राजा चन्द्रसेन महाकालेश्वर भगवान शिव की शरण में पहुँच गये। वे निश्छल मन से दृढ़ निश्चय के सथ उपवास-व्रत लेकर भगवान महाकाल की आराधना में जुट गये।
उन दिनों उज्जयिनी में एक विधवा ग्वालिन रहती थी, जिसको इकलौता पुत्र था। वह इस नगरी में बहुत दिनों से रहती थी। वह अपने उस पाँच वर्ष के बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने हेतु गई। उसने देखा कि राजा चन्द्रसेन वहाँ बड़ी श्रद्धाभक्ति से महाकाल की पूजा कर रहे हैं। राजा के शिव पूजन का महोत्सव उसे बहुत ही आश्चर्यमय लगा। उसने पूजन को निहारते हुए भक्ति भावपूर्वक महाकाल को प्रणाम किया और अपने निवास स्थान पर लौट गयी। उस ग्वालिन माता के साथ उसके बालक ने भी महाकाल की पूजा का कौतूहलपूर्वक अवलोकन किया था। इसलिए घर वापस आकर उसने भी शिव जी का पूजन करने का विचार किया। वह एक सुन्दर-सा पत्थर ढूँढ़कर लाया और अपने निवास से कुछ ही दूरी पर किसी अन्य के निवास के पास एकान्त में रख दिया।
उसने अपने मन में निश्चय करके उस पत्थर को ही शिवलिंग मान लिया। वह शुद्ध मन से भक्ति भावपूर्वक मानसिक रूप से गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य और अलंकार आदि जुटाकर, उनसे उस शिवलिंग की पूजा की। वह सुन्दर-सुन्दर पत्तों तथा फूलों को बार-बार पूजन के बाद उस बालक ने बार-बार भगवान के चरणों में मस्तक लगाया। बालक का चित्त भगवान के चरणों में आसक्त था और वह विह्वल होकर उनको दण्डवत कर रहा था। उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए अपने पुत्र को प्रेम से बुलाया। उधर उस बालक का मन शिव जी की पूजा में रमा हुआ था, जिसके कारण वह बाहर से बेसुध था। माता द्वारा बार-बार बुलाने पर भी बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई और वह भोजन करने नहीं गया तब उसकी माँ स्वयं उठकर वहाँ आ गयी।
माँ ने देखा कि उसका बालक एक पत्थर के सामने आँखें बन्द करके बैठा है। वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार खींचने लगी पर इस पर भी वह बालक वहाँ से नहीं उठा, जिससे उसकी माँ को क्रोध आया और उसने उसे ख़ूब पीटा। इस प्रकार खींचने और मारने-पीटने पर भी जब वह बालक वहाँ से नहीं हटा, तो माँ ने उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। बालक द्वारा उस शिवलिंग पर चढ़ाई गई सामग्री को भी उसने नष्ट कर दिया। शिव जी का अनादर देखकर बालक ‘हाय-हाय’ करके रो पड़ा। क्रोध में आगबबूला हुई वह ग्वालिन अपने बेटे को डाँट-फटकार कर पुनः अपने घर में चली गई। जब उस बालक ने देखा कि भगवान शिव जी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तब वह बिलख-बिलख कर रोने लगा। देव! देव! महादेव! ऐसा पुकारता हुआ वह सहसा बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। कुछ देर बाद जब उसे चेतना आयी, तो उसने अपनी बन्द आँखें खोल दीं।
उस बालक ने आँखें खोलने के बाद जो दृश्य देखा, उससे वह आश्चर्य में पड़ गया। भगवान शिव की कृपा से उस स्थान पर महाकाल का दिव्य मन्दिर खड़ा हो गया था। मणियों के चमकीले खम्बे उस मन्दिर की शोभा बढा रहे थे। वहाँ के भूतल पर स्फटिक मणि जड़ दी गयी थी। तपाये गये दमकते हुए स्वर्ण-शिखर उस शिवालय को सुशोभित कर रहे थे। उस मन्दिर के विशाल द्वार, मुख्य द्वार तथा उनके कपाट सुवर्ण निर्मित थे। उस मन्दिर के सामने नीलमणि तथा हीरे जड़े बहुत से चबूतरे बने थे। उस भव्य शिवालय के भीतर मध्य भाग में (गर्भगृह) करुणावरुणालय, भूतभावन, भोलानाथ भगवान शिव का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित हुआ था।
ग्वालिन के उस बालक ने शिवलिंग को बड़े ध्यानपूर्वक देखा उसके द्वारा चढ़ाई गई सभी पूजन-सामग्री उस शिवलिंग पर सुसज्जित पड़ी हुई थी। उस शिवलिंग को तथा उसपर उसके ही द्वारा चढ़ाई पूजन-सामग्री को देखते-देखते वह बालक उठ खड़ा हुआ। उसे मन ही मन आश्चर्य तो बहुत हुआ, किन्तु वह परमान्द सागर में गोते लगाने लगा। उसके बाद तो उसने शिव जी की ढेर-सारी स्तुतियाँ कीं और बार-बार अपने मस्तक को उनके चरणों में लगाया। उसके बाद जब शाम हो गयी, तो सूर्यास्त होने पर वह बालक शिवालय से निकल कर बाहर आया और अपने निवास स्थल को देखने लगा। उसका निवास देवताओं के राजा इन्द्र के समान शोभा पा रहा था। वहाँ सब कुछ शीघ्र ही सुवर्णमय हो गया था, जिससे वहाँ की विचित्र शोभा हो गई थी। परम उज्ज्वल वैभव से सर्वत्र प्रकाश हो रहा था। वह बालक सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन्न उस घर के भीतर प्रविष्ट हुआ। उसने देखा कि उसकी माता एक मनोहर पलंग पर सो रही हैं। उसके अंगों में बहुमूल्य रत्नों के अलंकार शोभा पा रहे हैं। आश्चर्य और प्रेम में विह्वल उस बालक ने अपनी माता को बड़े ज़ोर से उठाया। उसकी माता भी भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर चुकी थी। जब उस ग्वालिन ने उठकर देखा, तो उसे सब कुछ अपूर्व ‘विलक्षण’ सा देखने को मिला। उसके आनन्द का ठिकाना न रहा। उसने भावविभोर होकर अपने पुत्र को छाती से लगा लिया। अपने बेटे के भूतेश शिव के कृपा प्रसाद का सम्पूर्ण वर्णन सुनकर उस ग्वालिन ने राजा चन्द्रसेन को सूचित किया। निरन्तर भगवान शिव के भजन-पूजन में लगे रहने वाले राजा चन्द्रसेन अपना नित्य-नियम पूरा कर रात्रि के समय पहुँचे। उन्होंने भगवान शंकर को सन्तुष्ट करने वाले ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव देखा। उज्जयिनि को चारों ओर से घेर कर युद्ध के लिए खड़े उन राजाओं ने भी गुप्तचरों के मुख से प्रात:काल उस अद्भुत वृत्तान्त को सुना। इस विलक्षण घटना को सुनकर सभी नरेश आश्चर्यचकित हो उठे। उन राजाओं ने आपस में मिलकर पुन: विचार-विमर्श किया। परस्पर बातचीत में उन्होंने कहा कि राजा चन्द्रसेन महान शिव भक्त है, इसलिए इन पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। ये सभी प्रकार से निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनी का पालन-पोषण करते हैं। जब इस नगरी का एक छोटा बालक भी ऐसा शिवभक्त है, तो राजा चन्द्रसेन का महान शिवभक्त होना स्वाभाविक ही है। ऐसे राजा के साथ विरोध करने पर निशचय ही भगवान शिव क्रोधित हो जाएँगे। शिव के क्रोध करने पर तो हम सभी नष्ट ही हो जाएँगे। इसलिए हमें इस नरेश से दुश्मनी न करके मेल-मिलाप ही कर लेना चाहिए, जिससे भगवान महेश्वर की कृपा हमें भी प्राप्त होगी-
ईदृशाशिशशवो यस्य पुयर्या सन्ति शिवव्रता:।
स राजा चन्द्रसेनस्तु महाशंकरसेवक:।।
नूनमस्य विरोधेन शिव: क्रोधं करिष्यति।
तत्क्रोधाद्धि वयं सर्वे भविष्यामो विनष्टका:।।
तस्मादनेन राज्ञा वै मिलाय: कार्य एव हि।
एवं सति महेशान: करिष्यति कृपा पराम्।।
युद्ध के लिए उज्जयिनी को घेरे उन राजाओं का मन भगवान शिव के प्रभाव से निर्मल हो गया और शुद्ध हृदय से सभी ने हथियार डाल दिये। उनके मन से राजा चन्द्रसेन के प्रति बैर भाव निकल गया और उन्होंने महाकालेश्वर पूजन किया। उसी समय परम तेजस्वी श्री हनुमान वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने गोप-बालक को अपने हृदय से लगाया और राजाओं की ओर देखते हुए कहा- ‘राजाओं! तुम सब लोग तथा अन्य देहधारीगण भी ध्यानपूर्वक हमारी बातें सुनें। मैं जो बात कहूँगा उससे तुम सब लोगों का कल्याण होगा। उन्होंने बताया कि ‘शरीरधारियों के लिए भगवान शिव से बढ़कर अन्य कोई गति नहीं है अर्थात महेश्वर की कृपा-प्राप्ति ही मोक्ष का सबसे उत्तम साधन है। यह परम सौभाग्य का विषय है कि इस गोप कुमार ने शिवलिंग का दर्शन किया और उससे प्रेरणा लेकर स्वयं शिव की पूजा में प्रवृत्त हुआ। यह बालक किसी भी प्रकार का लौकिक अथवा वैदिक मन्त्र नहीं जानता है, किन्तु इसने बिना मन्त्र का प्रयोग किये ही अपनी भक्ति निष्ठा के द्वारा भगवान शिव की आराधना की और उन्हें प्राप्त कर लिया। यह बालक अब गोप वंश की कीर्ति को बढ़ाने वाला तथा उत्तम शिवभक्त हो गया है। भगवान शिव की कृपा से यह इस लोक के सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करेगा और अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। इसी बालक के कुल में इससे आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नन्द उत्पन्न होंगे और उनके यहाँ ही साक्षात नारायण का प्रादुर्भाव होगा। वे भगवान नारायण ही नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होकर श्रीकृष्ण के नाम से जगत में विख्यात होंगे। यह गोप बालक भी, जिस पर कि भगवान शिव की कृपा हुई है, ‘श्रीकर’ गोप के नाम से विशेष प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।
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