संन्यासी बालक
भारतीय इतिहास में ऐसे कई महान दिग्गज हुए हैं, जिनका जीवन ही उनका परिचय रहा है। उन्हें किसी विशेष परिचय की जरूरत नहीं होती। केवल उनका एक जिक्र ही काफी होता है। ऐसा ही एक संन्यासी बालक था जो एक दिन गांव-गांव भटकता हुआ एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने पहुंचा।
तब उसकी आयु मात्र सात वर्ष थी। वह ब्राह्मण के घर के बाहर पहुंचा और भिक्षा मांगी। लेकिन यह एक ऐसे ब्राह्मण का घर था जिसके पास खाने तक को कुछ नहीं थ, तो वह भिक्षा कैसे देते। अंतत: ब्राह्मण की पत्नी ने बालक के हाथ पर एक आंवला रखा और रोते हुए अपनी गरीबी का वर्णन किया।
उस महिला को यूं रोता हुआ देख बालक का हृदय द्रवित हो उठा। तभी उस बालक ने मन से मां लक्ष्मी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना की जिसके पश्चात प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आंवलों की वर्षा कर दी। यह थी उस अद्भुत बालक की कहानी, जो ना केवल इस कार्य से बल्कि अपने अनेक कार्यों से सृष्टि में जाना गया।
जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाले इस बालक का नाम ‘शंकर’ था, जिसने दक्षिण भारत के कालाड़ी ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में ही जन्म लिया था। अपने इन्हीं कार्यों के कारण यह बालक आगे चलकर “जगद्गुरु शंकराचार्य” के नाम से विख्यात हुआ।
शंकराचार्यजी का जन्म शिवगुरु नामपुद्रि के यहां विवाह के कई वर्षों बाद हुआ था। माना जाता है कि शिवगुरु नामपुद्रि वर्षों तक संतान सुख से वंचित थे, जिसके पश्चात उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान शंकर से प्रार्थना की। दोनों द्वारा कठोर तपस्या की गई जिसके बाद भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें एक पुत्र का वरदान देने का फैसला किया, लेकिन एक शर्त पर।
भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, “वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ और तुम्हें एक बालक का वरदान भी देता हूं लेकिन एक दुविधा है। तुम्हारे यहां जन्म लेने वाला दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा।“
“तुम्हें दोनों में से किसी एक का चयन करना होगा। मांगो तुम कैसा वर चाहते हो।“ इस पर शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र पाने की मांग की। प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कहा, “वत्स! तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां अवतीर्ण होऊंगा।“
कुछ समय के पश्चात विशिष्टादेवी ने एक सुंदर से बालक को जन्म दिया जिसका नाम शंकर रखा गया लेकिन इस बालक के नाम के साथ भविष्य में अपने कार्यों की वजह से आचार्य जुड़ गया और वह शंकराचार्य बन गया। बहुत छोटी सी उम्र में ही शंकराचार्यजी के सिर से पिता का साया उठ गया था।
वे अपनी माता के साथ ही रहते थे। माना जाता है कि मात्र 2 वर्ष की आयु में ही बालक शंकराचार्यजी ने वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे। अपने शांत व्यवहार के कारण ही शंकराचार्यजी छोटी सी उम्र में संन्यास लेने की ठान बैठे थे, लेकिन अकेली माता का मोह उन्हें कहीं जाने नहीं देता था।
परन्तु एक दिन उन्होंने निश्चय कर लिया कि हो ना हो वे संन्यास लेने के लिए जरूर जाएंगे। लेकिन जब मां द्वारा रोकने की कोशिश की गई तो बालक शंकर ने उन्हें नारद मुनि से जुड़ी एक कथा सुनाई। इस कथा के मुताबिक नारदजी की आयु जब मात्र पांच वर्ष की थी, तभी वे अपने स्वामी की अतिथिशाला में अतिथियों के मुंह से हरिकथा सुनकर साक्षात हरि से मिलने के लिए व्याकुल हो गए, लेकिन अपनी मां के स्नेह के कारण घर छोड़ने का साहस न जुटा पाए।
इसीलिए वे कहीं भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए, किन्तु उस काली रात ने उनके जीवन का एक बड़ा फैसला लिया। अचानक उस रात सर्पदंश के कारण उनकी मां की मृत्यु हो गई। इसे ईश्वर की कृपा मानकर नारद ने घर छोड़ दिया, जिसके बाद ही नारद मुनि अपने जीवन के असली पड़ाव तक पहुंच पाए थे।
कथा सुनाकर बालक शंकर ने अपनी मां से कहा, “मां, जब नारदजी ने घर का त्याग किया, तब वे मात्र पांच वर्ष के थे। यह तो ईश्वर का खेल था कि उनकी माता के ना चाहते हुए भी परिस्थितियों के आधार पर नारदजी जाने में सफल हुए। मां, मैं तो आठ वर्ष का हूं और मेरे ऊपर तो मातृछाया सदैव रहेगी।“
नन्हे बालक की बात सुनकर मां फिर से दुखी हो गईं। मां को समझाते हुए बालक शंकर बोला, “मां, तुम दुखी क्यों होती हो। देखो मेरे सिर पर तो हमेशा ही तुम्हारा आशीर्वाद रहेगा। तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारी ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव पर मैं उपस्थित रहूंगा और तुम्हारे पार्थिव शरीर को अग्नि देने जरूर आऊंगा”।
इतना कहते हुए बालक शंकर ने घर से बाहर पांव रखा और संन्यासी जीवन में आगे बढ़ते चले गए। कहते हैं कि वर्षों बाद शंकराचार्यजी अवश्य ही माता की मृत्यु के समय उपस्थित हुए और उनके शरीर को अग्नि देने के लिए आगे बढ़ना चाहा लेकिन कुछ परंपरागत सिद्धांतों के चलते ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा करने से रोका।
ब्राह्मणों द्वारा शंकराचार्यजी को रोकने का एक ही तर्क था कि एक संन्यासी, जो कि सभी दुनियावी मोह-माया से मुक्त होता है, उसे अपनी खुद की मां से भी स्नेह नहीं रखना चाहिए। यह उसके संन्यासी जीवन पर अभिशाप के समान है। लेकिन तब शंकराचार्यजी ने उन्हें यह ज्ञात कराया कि उनके द्वारा ली गई प्रतिज्ञा उनके संन्यासी जीवन का हिस्सा नहीं थी।
उन्होंने समझाया कि वह अपनी मां के प्यार के लिए नहीं बल्कि उन्हें दी गई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए अग्नि अर्पित करने आए हैं। उनकी यह प्रतिज्ञा तब ली गई थी जब उन्होंने संन्यास जीवन धारण भी नहीं किया था। इसीलिए वे किसी भी प्रकार का अधर्म नहीं कर रहे हैं।
तत्पश्चात सभी ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा करने की आज्ञा प्रदान की। बाद में शंकराचार्यजी ने अपने घर के ठीक सामने ही अपनी मां के शव को अग्नि अर्पित की थी। कहा जाता है कि शंकराचार्यजी द्वारा इस प्रकार घर के सामने अंतिम संस्कार करने के बाद ही दक्षिण भारत के इस क्षेत्र में भविष्य में सभी घरों के सामने ही अंतिम संस्कार करने की रीति आरंभ हो गई। यह रीति आज भी इसी तरह से चल रही है।
जगद्गुरु शंकराचार्य के जीवन से जुड़ी एक और कथा इतिहास में प्रचलित रही है। यह कथा उनके भारत भ्रमण से जुड़ी है। कहते हैं कि आठवीं शताब्दी के दौरान आदि शंकराचार्यजी जब सांस्कृतिक दिग्विजय के लिए भारत भ्रमण पर निकले थे तब वे एक बार मिथिला प्रदेश (जो कि आज के समय में दरभंगा, बिहार का हिस्सा है) से निकले थे।
यहां वे मंडन मिश्र से मिले। मिलने के बाद दोनों के बीच करीब सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ में निर्णायक मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती को बनाया गया था। कहते हैं कि जब निर्णय की घड़ी पास आई तो अचानक देवी भारती को कुछ समय काम से बाहर जाना पड़ गया, लेकिन जाते समय उन्होंने दोनों विद्वानों को पहनने के लिए एक-एक फूल की माला दी और कहा, ये दोनों मालाएं मेरी अनुपस्थिति में आपकी हार और जीत का फैसला करेंगी।
कुछ समय के बाद देवी भारती वापस लौटीं और निर्णय लेते हुए शंकराचार्यजी को विजयी घोषित किया। देवी भारती के इस निर्णय से सभी चकित रह गए और पूछा कि आखिरकार उनकी अनुपस्थिति में बिना किसी पहलू को परखे हुए उन्होंने कैसे इस प्रकार का निर्णय ले लिया।
इस पर देवी भारती ने स्पष्ट उत्तर देते हुए कहा, “जब भी किसी को चिंता होती है या क्रोध आता है तो वह उसे छिपा नहीं पाता। जब मैं वापस लौटी तो मैंने पाया कि मेरे पति के गले में डली हुई फूलों की माला उनके क्रोध के ताप से सूख चुकी है, जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अब भी पहले की भांति ताजे हैं।“
वे आगे बोलीं, “इससे यह स्पष्ट है कि शंकराचार्य की विजय हुई है और मेरा निर्णय गलत कदापि नहीं है।“ देवी भारती का फैसला सुनकर सभी दंग रह गए। सबने उनकी काफी प्रशंसा की।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जन्म 788 ई॰ कलाड़ी , चेर साम्राज्य वर्तमान में केरल, भारत
मृत्यु 820 ई॰ (उम्र 32) केदारनाथ , पाल साम्राज्य वर्तमान में उत्तराखंड, भारत गुरु/शिक्षक गोविंद भागवतपाद जी दर्शन अद्वैत वेदांत खिताब/सम्मान अद्वैत वेदांत की व्याख्या की |
आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश , केन, कठ, प्रश्न ,
मुण्डक , मांडूक्य , ऐतरेय , तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की।
भारतीय संस्कृति के विकास में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. सन् ७८८ को तथा मोक्ष ई. सन् ८२० स्वीकार किया जाता है। शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन
मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार थे। आठ वर्ष की अवस्था में गोविन्दपाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना - इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व ( ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त की।
शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-
अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित्
षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मै ही ब्रह्म हूं; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि -
नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य
मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:।
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते है। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है।
आदि गुरू शंकराचार्य का जन्म केरल के कालडी़ नामक ग्राम मे हुआ था। वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो गया। शन्कर की रुचि आरम्भ से ही सन्यास की तरफ थी। अल्पायु मे ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज मे निकल पडे।। वेदान्त के गुरु गोविन्द पाद से ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारे देश का भ्रमण किया। मिथिला के प्रमुख विद्वान मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ मे हराया। परन्तुं मण्डन मिश्र की पत्नि भारती के द्वारा पराजित हुए। दुबारा फिर रति विज्ञान मे पारंगत होकर भारती को पराजित किया।
उन्होनें तत्कालीन भारत मे व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की ज्योति से देश को आलोकित किया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा
शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। उत्तर मे ज्योतिर्मठ, दक्षिण मे श्रन्गेरी, पूर्व में गोवर्धन तथा पश्चिम में शारदा मठ नाम से देश में चार धामों की स्थापना की। ३२ साल की अल्पायु मे पवित्र केदार नाथ धाम में शरीर त्याग दिया। सारे देश में शंकराचार्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है।
जीवन
एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘'शंकर'’, जी आगे चलकर '‘जगद्गुरु शंकराचार्य'’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’
कुछ समय के पश्चात ई. सन् ६८६ में वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया ) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिन्ह, ललाट पर नेत्र चिन्ह तथा स्कंध पर शूल चिन्ह परिलक्षित कर उसे शिव अवतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्य जी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। जिस समय जगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, उस समय भरत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रकट हुए। मात्र ३२ वर्ष के जीवन काल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई। शंकराचार्य जी तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ शंकर जी की माता के कंधों पर आ पड़ा। लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी नहीं रखी॥ पाँच वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये प्रारंभ से ही प्रतिभा संपन्न थे, अत: इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी बेहद चकित थे। अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र २ वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। तत्पश्चात गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृ शक्ति इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर आलवाई (पूर्णा) नदी, जो उनके गाँव से बहुत दूर बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई। कुछ समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की सोची। पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे। एक ज्योतिषी ने जन्म-पत्री देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने माँ से हठ किया और बालक शंकर ने ७ वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से अनुमति लेकर घर से निकल पड़े।
वे केरल से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- ‘हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जायें।’ चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा-‘आपने मुझे ज्ञान दिया है, अत: आप मेरे गुरु हुए।’ यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा चार देवों के उन्हें दर्शन हुए। काशी में कुछ दिन रहने के दौरान वे माहिष्मति नगरी (बिहार का महिषी) में आचार्य मंडन मिश्र से मिलने गए। आचार्य मिश्र के घर जो पालतू मैना थी वह भी वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। मिश्र जी के घर जाकर आचार्य शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति आचार्य मिश्र को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से बोलीं- ‘महात्मन! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप विजयी कहला सकेंगे।’
तब मिश्र जी की पत्नी भारती ने
कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारम्भ किए। किंतु आचार्य शंकर तो बाल-ब्रह्मचारी थे, अत: काम से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से देते? इस पर उन्होंने भारती देवी से कुछ दिनों का समय माँगा तथा पर-काया में प्रवेश कर उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त की। इसके बाद आचार्य शंकर ने भारती को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया। काशी में प्रवास के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुए। अनेक शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे धर्म का प्रचार करने लगे। वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही निमग्न रहते थे। एक बार वे ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना कर रुदन करती रही। तब स्वयं आचार्य ने उससे वह शव हटाने का अनुरोध किया। उनका आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- ‘हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते?’ यह सुनकर आचार्य बोले- ‘हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गई कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है।’ स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- ‘महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता?’ उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई। अंत:चक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी।
अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया-
दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।
मठ
दर्शन और विचार
मुख्य लेख : अद्वैत वेदान्त
संक्षेप में अद्वैत मत
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।
सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है।
कई यूरोपीय विद्वानों का हवाला देते हुए,
Lucian Blaga समझता है कि आदि शंकराचार्य 'सभी समय का सबसे बड़े तत्वमीमांसा का विद्वान है'। आदि शंकराचार्य ने कहा कि ज्ञान के दो प्रकार के होते हैं। एक पराविद्या कहा जाता है और अन्य में अपराविद्या कहा जाता है। पहला गुण ब्रह्म (ईश्वर) होता है लेकिन दूसरा निर्गुण ब्रह्म होता है।
शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है।
जीव की मुक्ति ब्रह्म मे लीन हो जाने मे है।