विदेशी कर्ज का बढ़ता दलदल
हाल के वर्षो में अपेक्षाकृत ऊंची संवृद्धि दर के आधार पर भारतीय अर्थव्यवस्था की आकर्षक तस्वीर प्रस्तुत करने की कोशिश सरकार ने बार-बार की है.
पर अर्थव्यस्था की कई बुनियादी कमजोरियां किसी न किसी रूप में सामने आती ही रहती हैं. हाल में यह मुद्दा काफी उभर कर सामने आया है कि भारत की विदेशी कर्जदारी बहुत तेजी से बढ़ रही है. वित्तीय वर्ष 2012-13 अंत में स्थिति यह थी कि अगले एक वर्ष के भीतर यानी कि मार्च, 2014 तक भारत को 172 अरब डॉलर विदेशी कर्ज का भुगतान करना था.
यदि इसकी तुलना में मार्च, 2008 की स्थिति को देखें तो उस समय अगले एक वर्ष में 55 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज का भुगतान करना था. दूसरे शब्दों में विदेशी कर्ज के भुगतान का भार मात्र पांच वर्षो में तीन गुणा से भी अधिक बढ़ गया है. जहां मार्च, 2008 में अगले एक वर्ष में चुकाया जाने वाला विदेशी कर्ज देश के कुल विदेशी मुद्रा भंडार के 17 प्रतिशत के बराबर था; वहीं मार्च, 2013 में अगले एक वर्ष में चुकाई जाने वाली विदेशी कर्ज की राशि देश के कुल विदेशी मुद्रा भंडार के 60 प्रतिशत के बराबर हो चुकी थी. इससे पता चलता है कि विदेशी कर्ज की अदायगी के संदर्भ में भारत की स्थिति कितनी चिंताजनक हो चुकी है.
इस संदर्भ में काफी पहले से अधिक सावधान होने की सख्त जरूरत थी, पर सरकार ने ऐसा नहीं किया. विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के साथ ही देश में आयात शुल्क कम करने और आयात तेजी से बढ़ने की भूमिका तैयार हो गई थी, जो आज तक अपना असर दिखा रही है. इसकी तुलना में निर्यात बढ़ नहीं सके हैं. इस तरह अब व्यापार के घाटे का संकट उत्पन्न होने की अनुकूल स्थिति तो तैयार हो ही चुकी है. निजी कंपनियों द्वारा लिए गए विदेशी कर्ज के कारण स्थिति और विकट हो गई है. जिस तरह सोने का आयात बहुत होने दिया गया, उससे भी यह स्थिति विकट हुई है. बहुत देर से सरकार ने इस संदर्भ में थोड़ा-बहुत प्रयास किया है, पर यह पर्याप्त नहीं है और बहुत देरी से किया गया है.
यह विचारणीय सवाल है कि जिन आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में हम निश्चित तौर पर सक्षम हैं उनका आयात क्यों बढ़ने दिया गया है! दलहन और तिलहन इसका स्पष्ट और बड़ा उदाहरण हैं. यदि हम इतने बड़े कृषि क्षेत्र और पर्याप्त कुशलताओं के बावजूद दालों और खाद्य तेलों में भी आत्मनिर्भरता नहीं प्राप्त कर पाए हैं, तो इस बारे में सवाल उठाना जरूरी है कि इस अक्षमता के क्या कारण हैं. क्या यह दुख की बात नहीं है कि आज बच्चों के खिलौने भी अधिकतर चीन से ही आयात हो रहे हैं. ऐसा क्यों है? अपने देश में बेहतरीन सेब की उपलब्धि के बावजूद दूर-दूर के देशों के सेब धड़ल्ले से हमारे बाजार में छा रहे हैं. ऐसा क्यों है? आखिर कितना आयात बोझ अर्थव्यवस्था सह सकेगी?
तिस पर इस बात के पूरे संकेत हैं कि आयातों के लिए स्थितियां पहले से भी और अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए भारत जैसे विकासशील देशों पर विश्व व्यापार संगठन की ओर से दबाव पड़ रहा है. इस स्थिति में भारत को इस बारे में महत्वपूर्ण निर्णय लेने ही होंगे कि वह आयातों का अनावश्यक बोझ कैसे कम करे और इस संदर्भ में अपने स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता की भी रक्षा करे. बीच-बीच में बेहतर मुनाफे की तलाश में अस्थिर व अल्पकालीन विदेशी निवेश का आगमन भारतीय अर्थव्यवस्था में बढ़ जाता था, तो इससे अर्थव्यवस्था व विशेषकर विदेशी भुगतान की स्थिति की एक कृत्रिम तौर पर बेहतरी की तस्वीर प्रस्तुत हो जाती थी. इसका प्रचार-प्रसार इस रूप में किया जाता था कि सरकार की आर्थिक नीतियां बहुत सफल हो रही हैं. पर इस तरह की कृत्रिम उपलब्धियों की वास्तविक सच्चाई तो सामने शीघ्र ही आ जाती है. ‘हॉट मनी’ के कुछ समय के प्रवेश से कोई अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होती है, बल्कि वास्तविक मजबूती के लिए अर्थव्यवस्था के आधार को मजबूत बनाना होता है.
अर्थव्यवस्था की कमजोरी भारतीय रुपये की निरंतर गिरती कीमत के रूप में भी नजर आई. हालांकि सरकार ने इस बाबत भी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए यही कहा कि इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्थितियां या अमेरिकी नीतियां जिम्मेदार हैं, जबकि जरूरत अपनी अर्थव्यवस्था की कमजोरियों पर ध्यान देने की है. रुपये की कीमत गिरने के परिणामों को कम करने व देखने की प्रवृत्ति भी उचित नहीं है.
हकीकत तो यह है कि बढ़ते भूमंडलीकरण और बढ़ते आयातों की स्थिति में आम लोगों पर इसका पहले से अधिक प्रतिकूल असर पड़ेगा और महंगाई की प्रवृत्ति और तेज होगी.
पिछले अनुभव के आधार पर अब जरूरत यह है कि अर्थव्यवस्था को बुनियादी तौर पर मजबूत करने पर ध्यान दिया जाए. इसके लिए विदेशी निर्भरता को कम करते हुए आत्मनिर्भरता व स्वावलंबन की नीतियां अपनाना जरूरी है. किसानों, मजदूरों, दस्तकारों और छोटे उद्यमियों की आजीविका को मजबूत करने और देश के प्राकृतिक संसाधनों जल-जंगल-जमीन की रक्षा के साथ जुड़ी आजीविका की रक्षा करना भी जरूरी है. तरह-तरह के विदेशी कर्ज के जाल में उलझाने वाली नीतियों व परियोजनाओं और अनावश्यक आयातों से बचना आवश्यक है.
तथाकथित आर्थिक सुधारों में नाम पर हमारे देश में ऐसी अनेक नीतियां अपनाई गई हैं जिन्होंने ऊपरी तौर पर कुछ चमक-दमक चाहे दिखाई हो, पर मूल रूप से अर्थव्यवस्था की बुनियाद को कमजोर किया है. स्थिति जरा-सी प्रतिकूल होते ही अब यह कमजोरियां सामने आ रही हैं. इससे पहले कि हमारा देश विदेशी कर्ज की दलदल में पूरी तरह फंस जाए, अर्थव्यवस्था की इन कमजोरियों को दूर करने के लिए समुचित कदम उठाना जरूरी है. अर्थव्यवस्था में वास्तविक सुधार ऐसे होने चाहिए जिनसे देश के निर्धन वर्ग की आय व क्रयशक्ति में महवपूर्ण वृद्धि हो, साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था में ऐसी मजबूती आए जो भूमंडलीकरण के इस दौर से जुड़े उतार-चढ़ाव का सामना भलीभांति कर सके.
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