शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है परंतु सम्पूर्ण विश्व में यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ। ऐसी भी कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार बाबिल में हुआ और दूसरी बार माया सभ्यता के लोगों ने इसका आविष्कार किया पर दोनो ही बार के आविष्कार संख्या प्रणाली को प्रभावित करने में असमर्थ रहे तथा विश्व के लोगों ने इन्हें भुला दिया।
फिर भारत में हिंदुओं ने तीसरी बार शून्य का आविष्कार किया। हिंदुओं ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी अनुत्तरित प्रश्न है। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पांचवीं शताब्दी के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया।
सर्वनन्दि नामक दिगम्बर जैन मुनि द्वारा मूल रूप से प्रकृत में रचित लोकविभाग नामक ग्रंथ में शून्य का उल्लेख सबसे पहले मिलता है। इस ग्रंथ में दशमलव संख्या पद्धति का भी उल्लेख है।
सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने कहा 'स्थानं स्थानं दसा गुणम्' अर्थात् दस गुना करने के लिये (उसके) आगे (शून्य) रखो। और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धांत का उद्गम रहा होगा।आर्यभट्ट द्वारा रचित गणितीय खगोलशास्त्र ग्रंथ 'आर्यभट्टीय' के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिये विशिष्ट संकेत सम्मिलित था (इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने के अवसर मिला)। प्रचीन बक्षाली पाण्डुलिपि में, जिसका कि सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परंतु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है, शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिये उसमें संकेत भी निश्चित है। उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त के काल से भी पूर्व के काल में होता था।
शून्य तथा संख्या के दशमलव के सिद्धांत का सर्वप्रथम अस्पष्ट प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रंथ ब्रह्मस्फुट सिद्धांत में पाया गया है। इस ग्रंथ में ऋणात्मक संख्याओं (negative numbers) और बीजगणितीय सिद्धांतों का भी प्रयोग हुआ है। सातवीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल था, शून्य से सम्बंधित विचार कम्बोडिया तक पहुँच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अन्य मुस्लिम संसार में फैल गये।
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