Friday 27 May 2016

बाबा बंदा बहादुर सिंह

बाबा बंदा सिंह बहादुर सिख इतिहास में तथा भारतीय इतिहास में गगन में ध्रुव तारे की भांति चमकता रहेगा। कौम को कुर्बानी तथा बहादुरी के। आशीर्वाद की राहों में बाबा बंदा सिंह बहादुर की याद नई पीढिय़ों के लिए एक संदेश देती रहेगी। उनकी समस्त जीवनशैली ने कौम के लिए नया इतिहास रच कर, उसमें बहादुरी, दया, सहृदयता, सच्चाई तथा कुर्बानी की नींव रखी, जिससे भविष्य के महलों को मजबूती मिली। यह कविता उनके लिए सटीक बैठती है :
सूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत।
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहूं न छाड़े खेत॥
बाबा बंदा सिंह बहादुर का जन्म 16 अक्तूबर, 1670 ई. को पुंछ जिले के गांव राजोरी (जम्मू) में हुआ। उनके पिता जी का नाम रामदेव था। वह राजपूत घराने के किसान परिवार से सम्बंध रखते थे। इतिहासकारों में उनके नाम के सम्बंध में कई मतभेद हैं। उनके बचपन का नाम रामदास, लक्ष्मणदास, नारायणदास बताया जाता है। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने किशोरावस्था में ही घुड़सवारी, तीरअंदाजी, शिकार करने, तलवार चलाने में परिपक्वता हासिल कर ली थी। उनके जिस्म में संयम तथा उद्यम की बिजली चमकती थी जिसकी वजह से वह भविष्य में शत्रुओं के लिए कहर बनकर बरपे।
इतिहास बताता है कि वह 15 वर्ष की आयु में एक वैरागी साधु जानकी प्रसाद के सम्पर्क में आए तथा उनको गुरु धारण कर लिया। उनके गुरु ने उनका नाम माधोदास रख दिया। वैरागी माधोदास ने नांदेड़ के समीप, गोदावरी नदी के छोर पर योग साधना एकाग्रता के लिए एक शांत एवं आध्यात्मिक स्थान बनवाया। इस स्थान पर उन्होंने अपने जिस्म की समस्त आंतरिक शक्तियों को संयमित किया तथा योगी का रूप लिया।
तीन सितम्बर 1708 को डेरे नांदेड़ में माधोदास की मुलाकात श्री गुरु गोबिन्द सिंह से हुई। गुरु जी माधोदास की शारीरिक शक्ति, एकाग्रता तथा अन्य शक्तियां देखकर प्रसन्न हुए। उस समय उन्हें उस तरह के बहादुर, निडर, दलेर तथा संयमी व्यक्ति की आवश्यकता थी जिसमें नेतृत्व करने के समस्त गुण विद्यमान हों। बाबा बंदा बहादुर गुरु जी के सच्चे मित्र बन गये तथा गुरु जी की विचारधारा, सिद्धांतों से सहमत हो गए। गुरु जी ने माधोदास का नाम बंदा सिंह बहादुर रख दिया। गुरु जी ने उन्हें एक जत्थेदार, एक जरनैल बनाकर पंजाब की ओर भेजा। उनकी सहायता के लिए कुछ तीर, हथियार तथा अन्य सामग्री, चिन्ह इत्यादि भी दिए। बाबा बन्दा सिंह बहादुर के साथ पांच सिंह साहिबान : खालसा बाबा विनोद सिंह, बाबा काहन सिंह, बाबा बाज सिंह, भाई दया सिंह तथा भाई रण सिंह भी पंजाब के लिए रवाना हुए। यह अक्तूबर 1708 के करीब की बात है।
बताया जाता है कि दुश्मनों ने गुरु गोबिन्द सिंह को धोखा देकर छुरे (खंजर) से जख्मी कर दिया था। जब वह तीर चढ़ाने लगे तो जख्म खुल गए जिस कारण वह प्रभु चरणों में लीन हो गए।
गुरुजी के परिवार की शहीदी और गुरु जी का प्रभु चरणों में लीन होना बाबा बन्दा सिंह बहादुर के आक्रोश की ज्वाला बन गया। फिर क्या था, बाबा बंदा सिंह बहादुर ने युद्ध के मैदान में दुश्मनों के खूब दांत खट्टे किए। उनके साथ काफी सेना भी थी। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने सोनीपत, कैथल, समाना, घुढ़ाम, ठसका, शाहबाद, मुस्तफाबाद, कपूरी, सफोरा, छतबनूड़ पर कब्जा कर लिया। 12 मई 1710 को भयंकर युद्ध में सूबेदार वजीर खां मारा गया। 14 मई 1710 को सिख विजयी बनकर सरहिंद में दाखिल हुए। बंदे ने साढौरा तथा नाहन के बीच मुख्लिसगढ़ को अपनी राजधानी बनाया जिसका नाम ‘लोहगढ़’ रखा। यहां रह कर ही उन्होंने गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी के नाम पर सिक्के जारी किए। सहारनपुर, जलालाबाद तथा ननौता जीतने के बाद इसी तरह बाबा बंदा सिंह बहादुर अपनी बहादुरी के जौहर दिखाते हुए तथा दुश्मनों के दांत खट्टे करते आगे ही आगे बढ़ते गए। अब सिख पंजाब के मालिक कहलाने लगे। उस समय का बादशाह बहादुर शाह स्वयं पंजाब में दाखिल हुआ तथा हालात के मुताबिक सिख पीछे आ गए।
बाबा बंदा सिंह बहादुर सहित सिख फिर लोहगढ़ के किले में आ गए। यहां उन्होंने चम्बा के राजा की पुत्री साहिब कौर से विवाह करवा लिया। साहिब कौर की कोख से एक पुत्र रंजीत सिंह पैदा हुआ।
18 फरवरी, 1712 को बादशाह बहादुर शाह की मृत्यु हो गई। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने फिर चम्बा के क्षेत्र से निकल कर कई क्षेत्रों पर कब्जा किया। इसी तरह उन्होंने चम्बा के क्षेत्र से निकलकर मार्च 1715 को कलानौर एवं बटाला पर कब्जा किया। परन्तु मुगल फौज उनके पीछे लगी हुई थी। आखिर 7 दिसम्बर, 1715 ई. को मुगल फौज ने बाबा बंदा सिंह बहादुर तथा सिखों को भाई चंद की ऊंची विशाल हवेली में गुरदास नंगल में घेर लिया, जिसको गुरदास, नंगल की कच्ची गढ़ी या ‘गुरदास नंगल का थेहÓ कहा जाता है। यह गढ़ी गुरदासपुर से पांच किलोमीटर दूर स्थित है। शाही फौज का सिखों ने डटकर मुकाबला किया। गढ़ी में सिखों को घेरकर उनका आना-जाना, राशन तथा बाहरी प्रत्येक किस्म का सामग्री बंद कर दी। 7 दिसम्बर को शाही फौज ने गुरदास नंगल की गढ़ी पर कब्जा कर लिया।
इतिहास गवाह है कि बाबा बंदा सिंह बहादुर को शाही (मुगल) फौज कभी भी कैदी नहीं बना सकी थी। मगर उनके अपने ही साथी शाही फौज के साथ जा मिले। शाही फौज ने बाबा बंदा सिंह बहादुर के साथियों को अनेक लालच देकर खरीद लिया था, जिसके कारण उन्होंने बाबा बंदा सिंह बहादुर के सभी भेद शाही फौज को दे दिए। इसी वजह से बाबा बंदा सिंह बहादुर शाही फौज के कैदी बने। शाही फौज ने बाबा बंदा किंह बहादुर पर बहुत जुल्म किए। उनको एक बड़े लोहे के पिंजरे में बंद कर दिया गया। पिंजरा हाथी के ऊपर रखकर जुलूस की शक्ल में लाहौर ले जाया गया। पिंजरे के आगे-आगे सिखों के सिर नेज़ों पर ठूंसे गए। यह जुलूस 27 फरवरी, 1716 को दिल्ली में दाखिल हुआ। बाबा बंदा सिंह बहादुर की पत्नी तथा उनके चार वर्षीय पुत्र अजय सिंह को भी अनेक कष्टï दिए गए। 9 जून, 1716 को जुलूस की शक्ल में बाबा बंदा सिंह बहादुर तथा उनके पुत्र को अनेक सिखों के साथ कुतुबमीनार के समीप ख्वाज़ा कुतुबद्दीन, बख्तियार काकी के रोजे के पास पहुंचाया गया। उनके पुत्र अजय का दिल निकाल कर उनके मुंह में डाला गया। 9 जून, 1716 को दिल्ली मे अनेक कष्टï झेलते हुए बाबा बंदा सिंह बहादुर शहीद हो गए। उनको मुसलमान बनने को या मौत को स्वीकार करने के लिए कहा गया परन्तु वह हंस-हंस कर अपनी कौम पर जान न्योछावर कर गए। इतिहास में बाबा बंदा सिंह का नाम सुनहरे अक्षरों में अंकित रहेगा।

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