Wednesday 21 December 2016

पूराण के बारे मे जाने

*पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा।*
पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है।
पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं।
*महृर्षि वेदव्यास ने १८ पुराणों* का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं। आइए जानते है १८ पुराणों के बारे में।
१. *ब्रह्म पुराण*–
ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में २४६ अध्याय तथा १४००० श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
२. *पद्म पुराण* -
पद्म पुराण में ५५००० श्र्लोक हैं और यह ग्रंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।
३. *विष्णु पुराण* -
विष्णु पुराण में ६ अँश तथा २३००० श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।
४. *शिव पुराण* –
शिव पुराण में २४००० श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलाश पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।
५. *भागवत पुराण" –
भागवत पुराण में १८००० श्र्लोक हैं तथा १२ स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, द्वारिका नगरी के जलमग्न होने और यदु वंशियों के नाश तक का विवरण भी दिया गया है।
६. *नारद पुराण* -
नारद पुराण में २५००० श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी १८ पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध एवं कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थ्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं।
७. *मार्कण्डेय पुराण* –
अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में ९००० श्र्लोक तथा १३७ अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।
८. *अग्नि पुराण* –
अग्नि पुराण में ३८३ अध्याय तथा १५००० श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।
९. *भविष्य पुराण* –
भविष्य पुराण में १२९ अध्याय तथा २८००० श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के १२ महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है। ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है।
१०. *ब्रह्म वैवर्त पुराण* –
ब्रह्माविवर्ता पुराण में १८००० श्र्लोक तथा २१८ अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।
११. *लिंग पुराण* –
लिंग पुराण में ११००० श्र्लोक और १६३ अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
१२. *वराह पुराण* –
वराह पुराण में २१७ स्कन्ध तथा १०००० श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।
१३. *स्कन्द पुराण* –
स्कन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में ८१००० श्र्लोक और छः खण्ड हैं। स्कन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में २७ नक्षत्रों, १८ नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित १२ ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।
१४. *वामन पुराण* -
वामन पुराण में ९५ अध्याय तथा १०००० श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उपलब्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।
१५. *कुर्मा पुराण* –
कुर्मा पुराण में १८००० श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।
१६. *मतस्य पुराण*–
मतस्य पुराण में २९० अध्याय तथा १४००० श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है
१७. *गरुड़ पुराण* –
गरुड़ पुराण में २७९ अध्याय तथा १८००० श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्योंकि इस ग्रंथ को किसी परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त यूरोप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी।
१८. *ब्रह्माण्ड पुराण* -
ब्रह्माण्ड पुराण में १२००० श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक पृथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।

Tuesday 13 December 2016

थोप्पपुकरनम माफ़ी मांगने की प्राचीन परम्मप्रा


दक्षिण की एक कथा है - श्रीगणेश जी जब छोटे थे, तब बड़े ही नटखट थे ।
एक बार श्री विष्णु जी गणेश जी देखने कैलाश पहुंचे ।
गणेश जी को विष्णु भगवान् का चक्र बड़ा ही अच्छा लगा । उन्हें चक्र एक खिलौने जैसा लगा तो उन्होंने भगवान् श्री विष्णु से चक्र माँगा । विष्णु जी ने चक्र गणेश जी को दे दिया ।
गणेश जी थोड़ी देर तक तो चक्र को उलट-पलट कर देखते रहे । फिर अचानक ही उन्होंने चक्र अपने मुंह में रख लिया ।
अब विष्णु भगवान् - बड़े परेशान । कैसे निकालें चक्र श्री गणेश के मुँह से । उन्होंने बड़े प्यार से गणेश जी से विनती की । उन्हें मनाने की कोशिश की ।
पर सब व्यर्थ ।
गणेश जी का मुँह कुप्पे सा फूला तो फूला ही रहा परंतु उन्होंने मुख नहीं खोला ।
विष्णु भगवान् सोच में पड़ गये । ऐसा क्या करें कि गणेश जी अपना मुँह खोल दें ।
बहुत सोच-विचार करने पर विष्णु भगवान् को एक उपाय ही सूझा कि किसी तरह गणेश जी को हँसाया जाए ।
जब वह हँसेंगे तो उनका मुँह खुलेगा और चक्र उनके मुँह से निकल जाएगा ।
बस फिर क्या था - भगवान् विष्णु गणेश जी को हँसाने के लिए तरह-तरह की कोशिशें करने लगे, किन्तु भगवान् विष्णु की हर कोशिश बेकार रही ।
आखिर में विष्णु भगवान् ने जैसे हार मान ली और रोनी सी सूरत बनाकर दाँये हाथ से बाँया कान और बाँये हाथ से दाँया कान पकड़ क्षमा याचना करने लगे । पहली बार में तो गणेश जी पर भगवान् विष्णु के इस कौतुकता भरे करतब का कोई असर नहीं हुआ ।
पर जब बार-बार भगवान् विष्णु उसी तरह, कभी दाँये, कभी बाँये प्रकट होने लगे ।
कभी जमीन से ऊपर हवा में तो कभी जमीन पर, उछलते-कूदते क्षमा मांगने की मुद्रा में प्रकट होने लगे तो गणेश जी के लिए अपनी हँसी रोकना मुश्किल हो गया । उन्होंने बड़े जोर से अट्टहास किया और हँसते-हँसते लोटपोट हो गये । जैसे ही गणेश जी को हँसी आई, चक्र उनके मुँह से निकल भगवान् विष्णु की अँगुलियों में समा गया ।
तभी से थोप्पुकरणम द्वारा श्री गणेश को प्रसन्न करने की परम्परा ने जन्म लिया ।
आम तौर पर जब किसी को किसी से क्षमा माँगनी हो, सॉरी कहना हो तो लोग बाँये हाथ से बाँया कान और दाँये हाथ से दाँया कान पकड़ कर क्षमा मांगते हैं, पर जब दाँये हाथ से बाँया कान और बाँये हाथ से दाँया कान पकड़ कर क्षमा माँगी जाए तो उसे थोप्पुकरणम कहते हैं ।
।।श्री गणेशाय नमः।।

Monday 5 December 2016

नाग भट्ट एवं बप्पा रावल

---नागभट्ट व बप्पा रावल का संयुक्त मोर्चा ---
=== भारत से अरबो का सर्वनाश ===
मित्रों पूर्व में हिरण्याक्ष नामक असुर ने धरती को रसातल मे डुबो दिया था , तब धरती को पाताल से मुक्त करने हेतु भगवान् वाराह (विष्णु भगवान) ने हिरण्याक्ष का वध किया और धरती को पाताल से बाहर निकाल कर उसका उद्धार किया ,जिस प्रकार वे धरती के रक्षक कहलाये ।
Varaha-Avatar यही एक कारण था ,की प्रतिहार/परिहार शासक आदिवाराह नाम से जाने लगे ,उनकी राजमुद्रा पर भी वराह का रूप अंकित उन्होंने करवाया क्योंकि वे भी भगवान् वाराह की तरह हिन्दुभूमि को म्लेच्छो के काल-पाश में जाने से बचा पाए थे ,और म्लेच्छो के अधिकार में गयी हुयी भूमि को उनसे वापस छीन कर उसका उद्धार करने में सफल हो पाए थे ।
इस्लाम की स्थापना तथा अरबो का रक्तरंजीत साम्राज्य विस्तार सम्पूर्ण विश्व के लिए एक भयावह घटना है , मोहम्मद पैगम्बर के मृत्यु के बाद अरबो का अत्यंत प्रेरणादायी रूप से समरज्यिक उत्थान हुआ ।
100 वर्ष भीतर ही उन्होंने पश्चिम में स्पेन से पूर्व में चीन तक अपने साम्राज्य को विस्तारित किया।
वे जिस भी प्रदेश को जित ते वहा के लोगो के पास केवल दो ही विकल्प रखते, या तो वे उनका धर्म स्वीकार कर ले या मौत के घाट उतरे । उन्होंने पर्शिया जैसी महान संस्कृतियों ,सभ्यताएं,शिष्टाचारो को रौंध डाला ,मंदिर,चर्च,पाठ
शालाए,ग्रंथालय नष्ट कर डाले। कला और संस्कृतियों को जला डाला सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा डाला।
ग्रीस,इजिप्त,स्पेन,अफ्रीका,इरान आदि महासत्ताओ को कुचलने के बाद अरबो के खुनी पंजे हिन्दुस्तान की भूमि तरफ बढे। कठिन परिश्रम के बाद अंतर्गत धोकाधाडियो से राजा दाहिर की पराजय हुयी और अरबो की सिंध के रूप में भारत में पहली सफलता मिली। सिंध विजय के तुरंत बाद अरबो ने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान को जीतकर वहा की संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट करने हेतु महत्वाकांक्षी सेनापति अब्दुल-रहमान-जुनैद-अलगारी और अमरु को सिंध का सुबेदार बनाकर भेजा।
जुनैद ने पुरे शक्ति के साथ गुजरात,मालवा और राजस्थान के प्रदेशो पर हमला बोल दिया। उस समय वहा बहोत सी छोटी रियासते राज्य करती थी। जैसलमेर के भाटी,अजमेर के चौहान,भीनमाल के चावड़ा आदि ने डट कर अरबी सेना का मुकाबला किया पर वे सफल नहीं हो पाए और एक के बाद एक टूटने लगे। जैसलमेर के भाटी शासको की पराजय के बाद वहा के प्रदेशो पर अरबो का अधिकार हो गया।
इन सबको हराकर जुनैद ने मालवा पर आक्रमण कर दिया,जहा की राजधानी थी उज्जैन,जहा प्रतिहार/परिहार राजपूत साम्राज्य का शासन था और जहां का शासक था एक महावीर धर्मपुरुष सम्राट नागभट्ट प्रतिहार।
अरबी सेना का नागभट्ट के साथ युद्ध हुआ जिसमे अरबी सेना को वापस लौटना पडा क्योंकि नागभट्ट ने उनका कडा प्रतिकार किया था,परन्तु वे लौट कर पूर्ण शक्ति के साथ आयेंगे ये निश्चित था। सम्पूर्ण भारत पर अब अरबो के भीषण आक्रमण से होने वाले महाविनाश का खतरा मंडराने लगा,और सम्पूर्ण भारत की जनता ये प्रतीक्षा करने लगी की कोई अवतारी पुरुष उन्हें इस खतरे से बचाए…..
उन दिनों चित्तोर और मेवाड़ से मौर्य साम्राज्य को हटाकर नागदा के गहलोत वंशीय बाप्पा रावल ने वहा अपना अधिकार जमा लिया था ,नागभट्ट की तरह वो भी अरबो के संभावी खतरे को जानता था , इसीलिए उसने अरबो के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा स्थापित किया जिसमे अनेक पूर्व ,पश्चिमी,उत्तर और दक्षिणी राजाओ ने हिस्सा लिया।
नागभट्ट को ये पता चलते ही उसने अपनी सारी सेना और शक्ति लेकर वो बाप्पा रावल के साथ हो लिया । चालुक्यो ने अपने युवा युवराज अव्निजनाश्रय पुल्केशी को भी भारी सेना के साथ नागभट्ट के साथ भेज दिया और इस प्रकार एक महान सेना का गठन हुवा जिसकी संख्या लक्षावधि थी। मारवाड़ के आसपास सन 736 ई. में अरबो की विशाल सेना से हिन्दुओ की इस सेना का जिसका नेतृत्व नागभट्ट और बाप्पा रावल कर रहे थे भीषण संग्राम हुआ जिस संग्राम का वर्णन देवासुर संग्राम से करना उचित होंगा। दिन ढलने से पूर्व ही अरबो की सेना की मुख्य टुकड़ी काट कर फेक दी गयी, सूर्यास्त होने से पूर्व इने गिने अरबी सैनिको को छोड़ के बाकी सारे वध कर दिए गए ,जुनैद अपने अंगरक्षको के साथ भाग निकला ,युद्ध में आये हुए घावों के कारण उसी रात उसकी मृत्यु हो गयी । सम्पूर्ण अरेबिया में उनके बड़े सेनापति के अपनी सेना के साथ मारे जाने से हाहाकार मच गया ।
बाप्पा रावल ने युद्ध में विजय प्राप्त होने के पश्चात सिंध पर आक्रमण कर वहा भी मुसलमानों को उखाड़ फेका।सिन्धु नदी को लांघकर इरान तक प्रदेश को विजय कर,और वहा के सुलतान हैबत्खान की पुत्री से विवाह कर बाप्पा रावल ने संन्यास ले लिया। अरबो की भारत में भीषण पराजय होने से उनकी प्रतिष्ठा को कलंक लग गया था जिसे धोकर उस खोयी हुयी प्रतिष्ठा को प्राप्त करने और प्रतिशोध की भावना से अरब भारत के विरुद्ध एक दूसरा अभियान छेड़ने के लिए शाक्ति संचय में लग गए।
उन्होंने इरान,ईराक,इजिप्त आफ्रिका आदि से सेनाये और सेनानायको को इकठ्ठा किया और तामीम के नेतृत्व में भारत तथा नागभट्ट की और कूच कर दिया । अत्यंत दूर दृष्टी रखने वाले नागभट्ट ये जानते थे की ये एक ना एक दिन होना ही था,इसलिए वे दक्षिण में राष्ट्रकूट से हो रहे युद्धों को छोड़कर वापस उज्जैन आये और वहा से सीधे चित्तौर पहुचे जहा बाप्पा रावल का पुत्र खुमान रावल राज्य करता था।
नागभट्ट ने खुमान को उसके पिता बाप्पा रावल ने किये हुए संयुक्त युद्ध को याद दिलाया और पुनः एक बार वैसा ही मोर्चा तथा सेना संगठन अरबो के विरुद्ध करने का आवाहन किया जिसे खुमान ने स्वीकार किया ,एक बार फिर पुल्केशी परमारों ,सोलंकियो ने मोर्चे में सहभाग लिया और महासेना का गठन हुआ ।
इस बार मोर्चे का नेतृत्व पूर्ण रूप से नागभट्ट के हाथ में था ,नागभट्ट ने अनोखी सोच सोची की इस से पहले की शत्रु हम पर वार करे हम खुद ही शत्रु पर कूच करे ….
इस से पहले की अरबी सेना सिन्धु नदी को लांघ पाती नागभट्ट ने उन पर आक्रमण किया ,जो युद्ध कुछ सप्ताह बाद होना था वो कुछ पहले हो जाने से अरब चकित हो गए ,भीषण संग्राम में रणभूमि म्लेच्छो के रक्त से तर हुयी …..
सूर्यास्त होने से पूर्व तामीम का शीश हवा में लहरा गया और सेना नायक की मृत्यु होने से युद्ध में अरबो की पूर्ण रूप से पराजय हुयी , भागते हुए अरबो का राजपूत सेना ने कई दूर तक पीछा किया ,कई स्थानों पर अरब वापस खड़े होते गए और उखड़ते गए।
मुस्लिम इतिहासकारों ने अरबो की इस पराजय का वर्णन “फुतुहूल्बल्दान” नामक ग्रन्थ में किया है जिसमे अरब लिखते है की हिन्दुओ ने अरबी मुसलमानों के लिए थोड़ी भी जमीं नहीं छोड़ी इसलिए उन्हें भागकर दरिया के उस पार एक महफूज नगर बसाना पड़ा|
बार बार भारत में अपनी सेना की हानि होने की वजह से अपनी बची हुयी प्रतिष्ठा वापस मिलाने अरबो ने ये निश्चय कर लिया की भारत के किसी भी हिस्से को अब छुआ नहीं जाए और इसीलिए अगले 350 सालो तक अरबो ने भारत खंड में पैर नहीं रखा। और इस प्रकार प्रतिहार नागभट और बाप्पा रावल ने अपने भूमि और धर्म की रक्षा की।
आज इस घटना और हमारे बिच दीर्घ काल बित गया है , कल्पना करना भी भयावह है की ये लोग यदि उस वक्त राज्यों में बटे भारत को एक कर अरबो के विरुद्ध ना खड़े होते तो आज हम कौन होते,क्या कर रहे होते और किस हाल में होते…और इसीलिए हमें उन धर्मवीरो का अहसान मानना चाहिए।
अरबी राक्षसों के मुह में जाने से प्रतिहारो ने हिन्दुभूमि को बचाया और अपने आप को आदिवाराह की उपाधि दी। आज भी हमारी भूमि अधर्मियों के चंगुल में फसी हुयी है और जर्वत है नागभट्ट जैसे “आदिवाराह” की , जो की अधर्मियों का नाश कर धर्म की पताका फहराये।।
जय भवानी।।
जय नाभट्ट।।
जय बप्पा रावल।।