Sunday 1 January 2017

नव वर्ष

""खुद को पहचानो।,
इसे कुछ साल पहले नववर्ष पर लिखा गया था।
आज फिर पोस्ट करना जरूरी लग रहा।
हैप्पी न्यू ईयर फिर मना लेना!!!
अभी तो मनन करो,नही तो सब गंवा दोगे।
सरकार!! ना तो यह जनवरी साल का पहला मास है और ना ही 1 जनवरी पहला दिन!!!
रात दिवाली की तरह खूब पटाखे उड़ाए,,.धूम मचाये.!.आज तक जनवरी को पहला महीना मानते आए है अब जरा इस बात पर विचार करिए!"
सितंबर, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर क्रम से 7वाँ, 8वाँ, नौवाँ और दसवाँ महीना होना चाहिए जबकि ऐसा नहीं है .. ये क्रम से 9वाँ,10वाँ,11वां और
बारहवाँ महीना है .. हिन्दी में सात को सप्त, आठ को अष्ट कहा जाता है, इसे अग्रेज़ी में sept(सेप्ट) तथा oct(ओक्ट) कहा जाता है .. इसी से september तथा October बना ..
नवम्बर में तो सीधे-सीधे हिन्दी के "नव" को ले लिया गया है तथा दस अंग्रेज़ी में "Dec" बन जाता है जिससे
December बन गया ..
ऐसा इसलिए कि 1752 के पहले दिसंबर दसवाँ महीना ही हुआ करता था। इसका एक प्रमाण और है ..जरा विचार करिए कि 25 दिसंबर यानि क्रिसमस को X-mas क्यों कहा जाता है????
इसका उत्तर ये है की "X" रोमन लिपि में दस का प्रतीक है और mas यानि मास अर्थात महीना .. चूंकि दिसंबर दसवां महीना हुआ करता था इसलिए 25 दिसंबर दसवां महीना यानि X-mas से प्रचलित हो गया ..
इन सब बातों से ये निष्कर्ष निकलता है
की या तो अंग्रेज़ हमारे पंचांग के अनुसार ही चलते थे या तो उनका 12 के बजाय 10 महीना ही हुआ करता था .. साल को 365 के बजाय 305 दिन
का रखना तो बहुत बड़ी मूर्खता है तो ज्यादा संभावना इसी बात की है कि प्राचीन काल में अंग्रेज़ भारतीयों के प्रभाव में थे इस कारण सब कुछ भारतीयों जैसा ही करते थे और इंगलैण्ड ही क्या पूरा विश्व ही भारतीयों के प्रभाव में था जिसका प्रमाण ये है कि नया साल भले ही वो 1 जनवरी को माना लें पर उनका नया बही-खाता 1 अप्रैल से शुरू होता है ..
लगभग पूरे विश्व में वित्त-वर्ष अप्रैल से लेकर मार्च तक होता है यानि मार्च में अंत और अप्रैल से शुरू..
भारतीय अप्रैल में अपना नया साल मनाते थे तो क्या ये इस बात का प्रमाण नहीं है कि पूरा विश्व भारतीय संस्कृति में रंगा हुआ था।
इसका अन्य प्रमाण देखिए-अंग्रेज़ अपना तारीख या दिन 12 बजे
रात से बदल देते है .. दिन की शुरुआत सूर्योदय से होती है तो 12 बजे रात से नया दिन का क्या तुक बनता है ??
तुक बनता है भारत में नया दिन सुबह से गिना जाता है,आप पूजा-पाठ उसी से तो करते है न???
सूर्योदय से करीब दो-ढाई घंटे पहले के समय को ब्रह्म-मुहूर्त्त की बेला कही जाती है और यहाँ से नए दिन की शुरुआत होती है.. यानि की करीब 5-5.30 के आस-पास और इस समय इंग्लैंड में समय 12 बजे के आस-पास का होता है।
चूंकि वो भारतीयों के प्रभाव में थे इसलिए वो अपना दिन भी भारतीयों के दिन से मिलाकर रखना चाहते थे .....इसलिए उन लोगों ने रात के 12 बजे से ही दिन नया दिन और तारीख बदलने का नियम अपना लिया ......अब जरा सोचिए वो लोग अब तक हमारे विचारों से बंधे हैं, हमारा अनुसरण करते हैं,और हम??
हम विचारो से "शक्ति सम्पन्नता,, के बाद भी अपने अपने अनुसरणकर्ताओ का ही दास बनने को बेताब हैं..!!
यह कहानी शुरू हुई आजादी के बाद से...
बाद के कांग्रेसी शासकों को लगता रहा कि देश हमें "शासक,, तभी समझेगा जब हम पूर्ववर्ती मालिकानों की ही तरह दिखेंगे वही कार्य-प्रणाली अपनाएंगे।
बेसिकली गुलामी उनकी आत्मा में समा गई थी।
उन्होंने अंग्रेजी भाषा,पहनावा,शासन-पद्धतियाँ और जीवनशैली अपना ली।
वह अपनी छुट्टियां इसीलिए यूरोप में मनाने लगे।
उससे राज-वृत्ति को आत्म-तृप्ति मिलती है।कई हजार सालो में विकसित हुई अपने पुरखों की हरेक चीज पिछड़ी और अविज्ञानिक लगने लगी कितनी बड़ी विडम्बना है ये!
मैं ये नहीं कह रहा कि आप आज 31 दिसंबर को रात के 12 बजने का बेसब्री से इंतजार ना करिए या 12 बजे नए साल की खुशी में दारू मत पीजिए या खस्सी-मुर्गा मत काटिए/खाइये....पटाखे मत उड़ाइए,..दिन भर हैप्पी-हैप्पी मत करिये..वह तो अधिकार है आपका.... गौरांग-महाप्रभुओ जैसा कुछ तो लगना ही चाहिए आखिर वे हमारे मेंटर बन चुके हैं,मालिक-मुख्तार रहे हैं,सभी लोग गुलामी की याद एक साथ थोड़े ही भुला पायेंगे!!!!
हे,हे,हे,हे,!!!!
...लेकिन आज उनके नव-वर्ष पर बस ये कहूँगा कि देखिए खुद को आप, पहचानिए अपने आपको ..हम भारतीय गुरु हैं, सम्राट हैं किसी का अनुसरी नही करते है.... अंग्रेजों का दिया हुआ नया साल हमें नहीं चाहिये, जब सारे त्याहोर भारतीय संस्कृति के रीति रिवाजों के अनुसार ही मानते हैं तो नया साल क्यों नहीं?
दुनियां हमारा योग,ज्ञान अध्यात्म,विज्ञान,जीवन शैली,रीति-नीति अपना रही,...शादी-विवाह की पद्दतिया अपना रही और हम सत्तर साल पुराने मालिकों को भी नही भुला पा रहे?????
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इधर के सत्तर साल में पनपे एक विशिष्ट वर्ग के अंदर अपनी "गुलाम मनोवृत्ति,, की वजह से "विदेशियों, के लिए बड़ा क्रेज है।एक तरह से वे काले अंग्रेजो में बदल चुके हैं।मार्केटिंग साजिशों एवं कुतर्क के सहारे वे अपनी "दिमागी गुलामी, को वाजिब सिद्द करने की कोशिश करते हैं।
एक जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है । इसे रोम के सम्राट जुलियस सीज़र द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया ।
भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेजी शासको ने 1752 में किया । 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18 वीं शताब्दी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी ।
जनवरी से जून रोमन के नामकरण रोमन जोनस,मार्स व मया इत्यादि के नाम पर हैं । जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उसके पौत्र आगस्टन के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासो के आधार पर रखे गये हैं ।आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहो और नक्षत्रो की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए ।
स्वतंत्रता प्राप्ती के पश्चात नवम्बर 1952 में वैज्ञानिको और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गयी ।समिति के 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रम संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की । किन्तु, तत्कालिन प्रधानमंत्री पं. नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन केलेण्ड़र को ही राष्ट्रीय केलेण्ड़र के रूप में स्वीकार लिया गया।
ग्रेगेरियन केलेण्ड़र की काल गणना मात्र दो हजार वर्षो की अति अल्प समय को दर्शाती है ।जबकि यूनान की काल गणना 1582 वर्ष, रोम की 2757 वर्ष, यहूदी 5768, मिस्त्र की 28691, पारसी 198875 तथा चीन की 96002305 वर्ष पुरानी है ।
इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 110 वर्ष है । जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं । हमारे प्राचीन ग्रंथो में एक एक पल की गणना की गई है ।जिस प्रकार ईस्वी संवत् का सम्बन्ध ईसा से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मोहम्मद से है ।
किन्तु विक्रम संवत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न होकर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रम्हाण्ड़ के ग्रहो व नक्षत्रो से है । इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है ।
इतना ही नहीं, ब्रम्हाण्ड़ के सबसे पुरातन ग्रंथो वेदो में भी इसका वर्णन है ।नव संवत् यानि संवत्सरो का वर्णन यजूर्वेद के 27 वें व 30 वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमशः 45 व 15 में विस्तार से दिया गया
है । विश्व को सौर मण्ड़ल के ग्रहों व नक्षत्रो की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग पर आधारित है इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्यात्य देशो के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारंभ करने की बात हो हम एक कुशल पंड़ित के पास जाकर शुभ मुहूर्त पुछते हैं।और तो और, देश के बड़े से बड़े राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतज़ार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचाग पर आधारित होता है ।
भारतीय शास्त्ररीत्या कोई भी काम शुभ मुहूर्त में किया जाए तो उसकी सफलता में चार चाँद लग जाते हैं ।चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वर्ष प्रतिपदा कहलाती है। इस दिन से ही नया वर्ष प्रारंभ होता है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘ । आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व ‘ग़ुड़ी पड़वा‘ के रूप में मनाया जाता है।
कहा जाता है कि इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसमें मुख्यतया ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधवारें, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पिक्षयों और कीट-पतंगों का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का भी पूजन किया जाता है। इसी दिन से नया संवत्सर शुंरू होता है। अत इस तिथि को ‘नवसंवत्सर‘ भी कहते हैं।
शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। इसे औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है। इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सारे घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बंदनवार समृद्धि, व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। ‘उगादि‘ के दिन ही पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की थी।चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा कहा जाता है। वर्ष के साढ़े तीन मुहुर्तों में गुड़ीपड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में घरों में ‘पच्चड़ी/प्रसादम‘ के रूप में बांटा जाता है। कहा जाता है कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है। चर्म रोग भी दूर होता है। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद भी होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें—गुढ़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आममिलाया जाता है। गुढ़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक के रूप में होते हैं। भारतीय परंपरा में घरों में इसी दिन से आम खाने की आम का रस बनाने की और आम के रस की मिठाई बनाने की शुरुआत होती है।
शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ।
एक कथा यह भी है कि इसी दिन भगवान राम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी । बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए थे। आज भी घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को गुड़ीपडवा नाम दिया गया।
गुड़ी पड़वा के साथ ही नौ दिन की चैत्र की नवरात्रि शुरु हो जाती है। नौ दिन तक चलने वाली यह नवरात्रि दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को राम और सीता के विवाह के साथ सम्पन्न होती है।चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: सूर्योदय की प्रथम रश्मि के दर्शन के साथ नववर्ष का आरंभ होता है।
``मधौ सितादेर्दिनमासव
र्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति:''
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने प्रतिबादित किया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन-मास-वर्ष और युगादि का आरंभ हुआ है। युगों में प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ है। कल्पादि-सृष्ट्यादि-युगादि आरंभ को लेकर इस दिवस के साथ अति प्राचीनता जुड़ी हुई है। सृष्टि की रचना को लेकर इसी दिवस से गणना की गई है, लिखा है-
चैत्र-मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे%हनि ।
शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ।।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि के सूर्योदय के समय से नवसंवत्सर का आरंभ होता है, यह अत्यंत पवित्र तिथि है। इसी दिवस से पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया था।इस तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुंभ योग में दिन के समय भगवान का प्रथम अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है-
कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।
रेवत्यां योग-विष्कुम्भे दिवा द्वादश-नाड़िका: ।।
मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।।
प्रकृति खुद स्वागत करती है इस दिन का
चैत्र शुक्ल पक्ष आरंभ होने के पूर्व ही प्रकृति नववर्ष आगमन का संदेश देने लगती है। प्रकृति की पुकार, दस्तक, गंध, दर्शन आदि को देखने, सुनने, समझने का प्रयास करें तो हमें लगेगा कि प्रकृति पुकार-पुकार कर कह रही है कि पुरातन का समापन हो रहा है और नवीन बदलाव आ रहा है, नववर्ष दस्तक दे रहा है। वृक्ष-पौधे अपने जीर्ण वस्त्रों को त्याग रहे हैं, जीर्ण-शीर्ण पत्ते पतझड़ के साथ वृक्ष शाखाओं से पृथक हो रहे हैं, वायु के द्वारा सफाई अभियान चल रहा है, प्रकृति के रचयिता अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित कर बोराने की ओर ले जा रहे हैं, मानो पुरातन वस्त्रों का त्याग कर नूतन वस्त्र धारण कर रहे हैं। पलाश खिल रहे हैं, वृक्ष पुष्पित हो रहे हैं, आम बौरा रहे हैं, सरसों नृत्य कर रही है, वायु में सुगंध और मादकता की मस्ती अनुभव हो रही है।
सोचिये और जबाब दीजिये।
क्यों न हम सब मिलकर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: सूर्योदय पर नववर्ष का महोत्सव मनायेन और इसके लिये अन्य लोगों को भी प्रेरित करें???
(कल्पादी-सृष्ट्यादि-युगादि महोत्सव)
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नववर्ष आरम्भ
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: सूर्योदय की प्रथम रश्मि के दर्शन के साथ नववर्ष का आरंभ होता है।
``मधौ सितादेर्दिनमासव
र्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति:''
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन-मास-वर्ष और युगादि का आरंभ हुआ है। युगों में प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ है। कल्पादि-सृष्ट्यादि-युगादि आरंभ को लेकर इस दिवस के साथ अति प्राचीनता जुड़ी हुई है। सृष्टि की रचना को लेकर इसी दिवस से गणना की गई है, लिखा है-
चैत्र-मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे%हनि ।
शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ।।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि के सूर्योदय के समय से नवसंवत्सर का आरंभ होता है, यह अत्यंत पवित्र तिथि है। इसी दिवस से पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया था।इस तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुंभ योग में दिन के समय भगवान का प्रथम अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है-
कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।
रेवत्यां योग-विष्कुम्भे दिवा द्वादश-नाड़िका: ।।
मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।।
हमारे वर्ष के आरंभ दिवस का प्रकृति खुद स्वागत करती है,उत्सव मनाती है इस दिन और हम साधारण-मनुष्य ठंढक के देह-विरोधी प्रतिकूल,अप्राकृतिक मौसम में एक अविज्ञानिक कैलेण्डर को पूजने में लग जाते हैं।
इन्तजार करिये नव-वर्ष चैत्र-प्रतिपदा का धूम-धड़ाके से मनाएंगे इस बार क्योंकि मैं तो आजाद हूँ,...कानूनी रूप से भी,दिमागी रूप से भी!!
और आप????????????
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