Saturday 19 December 2015

एकादाशी व्रत का महत्व

एकादशी पर उपवास क्यों करें – इसकी महत्ता। कन्नड़ भाषा में ऑडियो क्लिप
एकादशी की तिथियाँ और इसका महात्म्य दर्शाती कथाएं
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एकादशी – भूमिका, इसका सन्दर्भ इत्यादि  (गौड़ीय वैष्णव परंपरा)
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एकादशी की तिथियाँ और उनका महात्म्य
वर्ष की एकादशी तिथियाँ
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मैं भारतीय पंचांग को विदेश में प्रयोग क्यों नहीं कर सकता (एकादशी की तिथियाँ विदेश में भारतीय पंचांग से अलग होती हैं। )
ऊपर दी गयी जानकारियों के लिए कृपया  http://en.wikipedia.org/wiki/Ekadashi पर जाएँ ।
एकादशी क्या हैं?
संस्कृत शब्द एकादशी का शाब्दिक अर्थ ग्यारह होता है। एकादशी पंद्रह दिवसीय पक्ष (चन्द्र मास) के ग्यारवें दिन आती है। एक चन्द्र मास (शुक्ल पक्ष) में  चन्द्रमा अमावस्या से बढ़कर पूर्णिमा तक जाता है, और उसके अगले पक्ष में (कृष्ण पक्ष) वह पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र से घटते हुए अमावस्या तक जाता है। इसलिए हर कैलंडर महीने (सूर्या) में एकादशी दो बार आती है, शुक्ल एकादशी जो कि बढ़ते हुए चन्द्रमा के ग्यारवें दिन आती है, और कृष्ण एकादशी जो कि घटते हुए चन्द्रमा के ग्यारवें दिन आती हैं। ऐसा निर्देश हैं कि हर वैष्णव को एकादशी के दिन व्रत करना चाहियें। इस प्रकार की गई तपस्या भक्तिमयी जीवन के लिए अत्यंत लाभकारी हैं।

एकादशी का उद्गम
पद्मा पुराण के चतुर्दश अध्याय में, क्रिया-सागर सार नामक भाग में, श्रील व्यासदेव एकादशी के उद्गम की व्याख्या जैमिनी ऋषि को इस प्रकार करते हैं :
इस भौतिक जगत के उत्पत्ति के समय, परम पुरुष भगवान् ने, पापियों को दण्डित करने के लिए पाप का मूर्तिमान रूप लिए एक व्यक्तित्व की रचना की (पापपुरुष)। इस व्यक्ति के चारों हाथ पाँव की रचना अनेकों पाप कर्मों से की गयी थी। इस पापपुरुष को नियंत्रित करने के लिए यमराज की उत्पत्ति अनेकों नरकीय ग्रह प्रणालियों की रचना के साथ हुई। वे जीवात्माएं जो अत्यंत पापी होती हैं, उन्हें मृत्युपर्यंत यमराज के पास भेज दिया जाता है,  यमराज ,जीव को उसके पापों के भोगों के अनुसार नरक में पीड़ित होने के लिए भेज देते हैं।
इस प्रकार जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगने लगी। इतने सारी जीवात्माओं को नरकों में कष्ट भोगते देख परम कृपालु भगवान् को उनके लिए बुरा लगने लगा। उनकी सहायतावश भगवान् ने अपने स्वयं के स्वरुप से, पाक्षिक एकादशी के रूप को अवतरित किया। इस कारण, एकादशी एक चन्द्र पक्ष के पन्द्रवें दिन उपवास करने के व्रत का ही व्यक्तिकरण है । इस कारण एकादशी और भगवान् श्री विष्णु अभिन्न नहीं है। श्री एकादशी व्रत अत्यधिक पुण्य कर्म हैं, जो कि हर लिए गए संकल्पों में शीर्ष स्थान पर स्थित है।
तदुपरांत विभिन्न पाप कर्मी जीवात्माएं एकादशी व्रत का नियम पालन करने लगी और उस कारण उन्हें तुरंत ही वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होने लगी। श्री एकादशी के पालन से हुए अधिरोहण से , पापपुरुष (पाप का मूर्तिमान स्वरुप) को धीरे धीरे दृश्य होने लगा कि अब उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ने लगा है। वह भगवान् श्री विष्णु के पास प्रार्थना करते हुए पहुँचा, “हे प्रभु, मैं आपके द्वारा निर्मित आपकी ही कृति हूँ और मेरे माध्यम से ही आप घोर पाप कर्मों वाले जीवों को अपनी इच्छा से पीड़ित करते हैं। परन्तु अब श्री एकादशी के प्रभाव से अब मेरा ह्रास हो रहा है। आप कृपा करके मेरी रक्षा एकादशी के भय से करें। कोई भी पुण्य कर्म मुझे नहीं बाँध सकता हैं। परन्तु आपके ही स्वरुप में एकादशी मुझे प्रतिरोधित कर रही हैं। मुझे ऐसा कोई स्थान ज्ञात नहीं जहाँ मैं श्री एकादशी के भय से मुक्त रह सकूं। हे मेरे स्वामी! मैं आपकी ही कृति से उत्पन्न हूँ, इसलिए कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का पता बताईये जहाँ मैं निर्भीक होकर निवास कर सकूँ।”
तदुपरांत, पापपुरुष की स्थिति पर अवलोकन करते हुए भगवान् श्री विष्णु ने कहा, “हे पापपुरुष! उठो! अब और शोकाकुल मत हो। केवल सुनो, और मैं तुम्हे बताता हूँ कि तुम एकादशी के पवित्र दिन पर कहाँ निवास कर सकते हो। एकादशी का दिन जो त्रिलोक में लाभ देने वाला है, उस दिन तुम अन्न जैसे खाद्य पदार्थ की शरण में जा सकते हो।  अब तुम्हारे पास शोकाकुल होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि मेरे ही स्वरुप में श्री एकादशी देवी अब तुम्हे अवरोधित नहीं करेगी।” पापपुरुष को आश्वाशन देने के बाद भगवान श्री विष्णु अंतर्ध्यान हो गए और पापपुरुष पुनः अपने कर्मों को पूरा करने में लग गया। भगवान विष्णु के इस निर्देश के अनुसार, संसार भर में जितने भी पाप कर्म पाए जा सकते हैं वे सब इन खाद्य पदार्थ (अनाज) में निवास करते हैं। इसलिए वे मनुष्य गण जो कि जीवात्मा के आधारभूत लाभ के प्रति सजग होते हैं  वे कभी एकादशी के दिन अन्न नहीं ग्रहण करते हैं।

एकादशी व्रत धारण करना
सभी वैदिक शास्त्र एकादशी के दिन पूर्ण रूप से उपवास( निर्जल) करने की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिए आयु आठ से अस्सी तक के हर किसी को वर्ण आश्रम, लिंग भेद या और किसी भौतिक वैचारिकता की अपेक्षा कर के एकादशी के दिन व्रत करने की अनुशंसा की गयी है।
वे लोग जो पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक बार भोजन करके एकादशी व्रत करने की भी अनुशंसा की गयी हैं। परन्तु इस दिन किसी भी रूप में किसी को भी किसी भी स्थिति में अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये।
एकादशी पर भक्तिमयी सेवा
एकादशी को उसके सभी लाभों के साथ ऐसा उपाय या साधन समझना चाहिये जो सभी जीवों के परम लक्ष्य, भगवद भक्ति, को प्राप्त करने में सहायक हैं । भगवान् की कृपा से यह दिन भगवान् की भक्तिमयी सेवा करने के लिए अति शुभकारी एवं फलदायक बन गया है। पापमयी इच्छाओं से मुक्त हो एक भक्त विशुद्ध भक्तिमयी सेवा कर सकता है और ईश्वर की कृपापात्र बन सकता है।
इसलिए, भक्तों के लिए, एकादशी के दिन व्रत करना साधना-भक्ति के मार्ग में प्रगति करने का माध्यम है। व्रत करने की क्रिया चेतना का शुद्धिकरण करती है और भक्त को कितने ही भौतिक विचारों से मुक्त करती है। क्योंकि इस दिन की गई भक्तिमयी सेवा का लाभ किसी और दिन की गई सेवा से कई गुना अधिक होता है, इसलिए भक्त जितना अधिक से अधिक हो सके आज के दिन जप, कीर्तन, भगवान की लीला संस्मरण पर चर्चाएँ आदि अन्य भक्तिमयी सेवाएं किया करते हैं।
श्रील प्रभुपाद ने भक्तों के लिए इस दिन कम से कम पच्चीस जप माला संख्या पूरी करने, भगवान् के लीला संस्मरणों को पढ़ने एवं भौतिक कार्यकलापों में न्यूनतम संलग्न होने की अनुशंसा की है।  हालाँकि, वे भक्त जो पहले से ही भगवान् की भक्ति की सेवाओं( जैसे पुस्तक वितरण, प्रवचन आदि)  में सक्रियता से लगे हुए हैं उनके लिए उन्होंने कुछ छूट दी हैं, जैसे उन खाद्यों को वे इस दिन भी खा या पी सकते है जिनमे अन्न नहीं हैं।
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एकादशी का महात्म्य
श्रील जीव गोस्वामी द्वारा रचित, भक्ति-सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में से लिया हुआ एक श्लोक भर्त्सना करते हुए बताता है कि जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करते हैं वो मनुष्य अपने माता, पिता, भाइयों एवं अपने गुरु की मृत्यु का दोषी होते हैं, वैसे मनुष्य अगर वैकुंठ धाम तक भी पहुँच जाएँ तो भी वे वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। उस दिन किसी भी तरह के अन्न को ग्रहण करना सर्वथा वर्जित है, चाहे वह भगवान् विष्णु को ही क्यों न अर्पित हो।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो कोई भी एकादशी के दिन व्रत करता है वो सभी पाप कर्मों के दोषों से मुक्त हो जाता हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करता है। मूल सिद्धांत केवल उस दिन भूखे रहना नहीं है, बल्कि अपनी निष्ठा और प्रेम को गोविन्द, या कृष्ण पर और भी सुदृढ़ करना है। एकादशी के दिन व्रत का मुख्य कारण है अपनी शरीर की जरूरतों को घटाना और अपने समय का भगवान् की सेवा में जप या किसी और सेवा के रूप में व्यय करना है। उपवास के दिन सर्वश्रेष्ठ कार्य तो भगवान् गोविन्द के लीलाओं का ध्यान करना और उनके पावन नामों को निरंतर सुनते रहना है।
एकादशी व्रत दोनों हरे कृष्ण भक्तों एवं हिन्दुओं द्वारा चन्द्रमा के बढ़ते हुए शुक्ल पक्ष के ग्यारवे दिन किया जाता है। इस व्रत के पालन के लिए कौन सी चीजें खाई जा सकती हैं, सम्बन्धी कई नियम है जो कि व्रत की सख़्ती के अनुसार बदल सकते हैं। वैष्णव पंचांग के परामर्श के अनुसार ही व्रत करना चाहिये ताकि सही दिन व्रत किया जा सके।
एकादशी व्रत धारण करने के नियम
पूर्ण उपवास अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करने की बहुत ही उचित क्रिया है, परन्तु व्रत धारण करने का मुख्य कारण कृष्ण का स्मरण/ध्यान करना है। उस दिन शरीर की जरूरतों को सरल कर दिया जाता है, और उस दिन कम सो कर भक्तिमयी सेवा, शास्त्र अध्ययन और जप आदि पर ध्यान केन्द्रित करने की अनुशंसा की गई हैं।
व्रत का आरंभ सूर्योदय से होता है और अगले दिन के सूर्योदय तक चलता है, इसलिए अगर कोई इस बीच अन्न ग्रहण कर लेता है तो व्रत टूट जाता है। वैदिक शिक्षाओं में सूर्योदय के पूर्व खाने की अनुशंषा नहीं की गयी हैं खासकर एकादशी के दिन तो बिलकुल नहीं। एकादशी व्रत का पालन उस दिन जागने के बाद से ही मानना चाहिये। अगर व्रत गलती से टूट जाए तो उसे बाकि के दिन अथवा अगले दिन तक पूरा करना चाहिये।
वे जन जो बहुत ही सख्ती से एकादशी व्रत का पालन करते हैं उन्हें पिछली रात्रि के सूर्यास्त के बाद से कुछ भी नहीं खाना चाहिये ताकि वे आश्वस्त हो सके कि पेट में एकादशी के दिन कुछ भी बिना पचा हुआ भोजन शेष न बचा हो। बहुत लोग वैसा कोई प्रसाद भी नहीं ग्रहण करते जिनमें अन्न डला हो। वैदिक शास्त्र शिक्षा देते हैं कि एकादशी के दिन साक्षात् पाप (पाप पुरुष) अन्न में वास करता है, और इसलिए किसी भी तरह से उनका प्रयोंग नहीं किया जाना चाहिये ( चाहे कृष्ण को अर्पित ही क्यों न हो) । एकादशी के दिन का अन्न के प्रसाद को अगले दिन तक संग्रह कर के रखना चाहिये या फिर उन लोगों में वितरित कर देना चाहिये जो इसका नियम सख्ती से नहीं मानते या फिर पशुओं को दे देना चाहिये।

एकादशी व्रत को कैसे तोड़े
अगर व्रत निर्जल( पूर्ण उपवास बिना जल ग्रहण किये) किया गया है तो व्रत को अगले दिन अन्न से तोड़ना आवश्यक नहीं है। व्रत को चरणामृत( वैसा जल जिससे कृष्ण के चरणों को धोया गया हो), दूध या फल से वैष्णव पंचांग में दिए नियत समय पर तोड़ा जा सकता है। यह समय आप किस स्थान पर हैं उसके अनुसार बदलता रहता है। अगर पूर्ण एकादशी के स्थान पर फल, सब्जियों और मेवों के प्रयोग से एकादशी की गयी हैं तो उसे तोड़ने के लिए अन्न ग्रहण करना अनिवार्य हैं।
खाद्य पदार्थ जो एकादशी व्रत में खाए जा सकते हैं
श्रीला प्रभुपाद  ने पूर्ण एकादशी करने के लिए कभी बाध्य नहीं किया, उन्होंने सरल रूप से भोजन करके जप एवं भक्तिमयी सेवा पर पूरा ध्यान केन्द्रित करने को कहा। निम्नलिखित वस्तुएं और मसालें व्रत के भोजन में उपयोग किये जा सकते हैं:
सभी फल (ताजा एवं सूखें);
सभी मेवें बादाम आदि और उनका तेल;
हर प्रकार की चीनी;
कुट्टू
आलू, साबूदाना, शकरकंद;
नारियल;
जैतून;
दूध;
ताज़ी अदरख;
काली मिर्च और
सेंधा नमक ।
एकादशी पर वर्जित खाद्य
अगर अन्न का एक भी कण गलती से भी ग्रहण कर लिया गया हो तो एकादशी व्रत विफल हो जाता है। इसलिए उस दिन भोजन पकाते समय काफी सावधानी बरतनी चाहिये और मसालों को केवल नए पेकिंग से, जो अन्न से अनछुए हो, से ही लेना चाहिये। निम्नलिखित खाद्यों का प्रयोग एकादशी के दिन निषेध बताया गया है :
सभी प्रकार के अनाज (जैसे बाजरा, जौ, मैदा, चावल और उरद दाल आटा) और उनसे बनी कोई भी वस्तु;
मटर, छोला, दाल और सभी प्रकार की सेम, उनसे बनी अन्य वस्तुएं जैसे टोफू;
नमक, बेकिंग सोडा, बेकिंग पावडर, कस्टर्ड और अन्य कई मिठाईयों का प्रयोग नहीं किया जाता क्योंकि उनमें कई बार चावल का आटा मिला होता है;
तिल (सत-तिल एकादशी अपवाद है, उस दिन तिल को भगवान् को अर्पित भी किया जाता है और उसको ग्रहण भी किया जा सकता है) और
मसालें जैसे कि हींग, लौंग, मेथी, सरसों, इमली, सौंफ़ इलायची, और जायफल।
एकादशी के दिन व्रत धारण करना कृष्ण भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण तप है और यह आध्यात्मिक प्रगति को बढ़ाने के लिए किया जाता है। बिलकुल निराहार व्रत करके कमजोर होकर अपनी कार्यों एवं भक्तिमयी सेवाओं में अक्षम हो जाने से बेहतर है थोड़ा उन चीजों को खाकर व्रत करना जो व्रत में खायी जा सकती हैं।

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