Saturday 19 December 2015

एकादाशी व्रत का महत्व

एकादशी पर उपवास क्यों करें – इसकी महत्ता। कन्नड़ भाषा में ऑडियो क्लिप
एकादशी की तिथियाँ और इसका महात्म्य दर्शाती कथाएं
हिंदी में indif.com पर एकादशी व्रत की कथाएं
एकादशी – भूमिका, इसका सन्दर्भ इत्यादि  (गौड़ीय वैष्णव परंपरा)
वैदिक दिनदर्शिका (बिना मूल्य के उपलब्ध) एकादशी (एवं अन्य तिथियाँ) की गणना विश्व के किसी कोने में करने में सक्षम है।
पुष्टिमार्ग एकादशी दिनदर्शिका
आपके शहर का पंचांग / पंचांगम
एकादशी की तिथियाँ और उनका महात्म्य
वर्ष की एकादशी तिथियाँ
विश्व का पंचांग के प्रयोग से अपने नगर की एकादशी व्रत की तिथि पता लगायें।
मैं भारतीय पंचांग को विदेश में प्रयोग क्यों नहीं कर सकता (एकादशी की तिथियाँ विदेश में भारतीय पंचांग से अलग होती हैं। )
ऊपर दी गयी जानकारियों के लिए कृपया  http://en.wikipedia.org/wiki/Ekadashi पर जाएँ ।
एकादशी क्या हैं?
संस्कृत शब्द एकादशी का शाब्दिक अर्थ ग्यारह होता है। एकादशी पंद्रह दिवसीय पक्ष (चन्द्र मास) के ग्यारवें दिन आती है। एक चन्द्र मास (शुक्ल पक्ष) में  चन्द्रमा अमावस्या से बढ़कर पूर्णिमा तक जाता है, और उसके अगले पक्ष में (कृष्ण पक्ष) वह पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र से घटते हुए अमावस्या तक जाता है। इसलिए हर कैलंडर महीने (सूर्या) में एकादशी दो बार आती है, शुक्ल एकादशी जो कि बढ़ते हुए चन्द्रमा के ग्यारवें दिन आती है, और कृष्ण एकादशी जो कि घटते हुए चन्द्रमा के ग्यारवें दिन आती हैं। ऐसा निर्देश हैं कि हर वैष्णव को एकादशी के दिन व्रत करना चाहियें। इस प्रकार की गई तपस्या भक्तिमयी जीवन के लिए अत्यंत लाभकारी हैं।

एकादशी का उद्गम
पद्मा पुराण के चतुर्दश अध्याय में, क्रिया-सागर सार नामक भाग में, श्रील व्यासदेव एकादशी के उद्गम की व्याख्या जैमिनी ऋषि को इस प्रकार करते हैं :
इस भौतिक जगत के उत्पत्ति के समय, परम पुरुष भगवान् ने, पापियों को दण्डित करने के लिए पाप का मूर्तिमान रूप लिए एक व्यक्तित्व की रचना की (पापपुरुष)। इस व्यक्ति के चारों हाथ पाँव की रचना अनेकों पाप कर्मों से की गयी थी। इस पापपुरुष को नियंत्रित करने के लिए यमराज की उत्पत्ति अनेकों नरकीय ग्रह प्रणालियों की रचना के साथ हुई। वे जीवात्माएं जो अत्यंत पापी होती हैं, उन्हें मृत्युपर्यंत यमराज के पास भेज दिया जाता है,  यमराज ,जीव को उसके पापों के भोगों के अनुसार नरक में पीड़ित होने के लिए भेज देते हैं।
इस प्रकार जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगने लगी। इतने सारी जीवात्माओं को नरकों में कष्ट भोगते देख परम कृपालु भगवान् को उनके लिए बुरा लगने लगा। उनकी सहायतावश भगवान् ने अपने स्वयं के स्वरुप से, पाक्षिक एकादशी के रूप को अवतरित किया। इस कारण, एकादशी एक चन्द्र पक्ष के पन्द्रवें दिन उपवास करने के व्रत का ही व्यक्तिकरण है । इस कारण एकादशी और भगवान् श्री विष्णु अभिन्न नहीं है। श्री एकादशी व्रत अत्यधिक पुण्य कर्म हैं, जो कि हर लिए गए संकल्पों में शीर्ष स्थान पर स्थित है।
तदुपरांत विभिन्न पाप कर्मी जीवात्माएं एकादशी व्रत का नियम पालन करने लगी और उस कारण उन्हें तुरंत ही वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होने लगी। श्री एकादशी के पालन से हुए अधिरोहण से , पापपुरुष (पाप का मूर्तिमान स्वरुप) को धीरे धीरे दृश्य होने लगा कि अब उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ने लगा है। वह भगवान् श्री विष्णु के पास प्रार्थना करते हुए पहुँचा, “हे प्रभु, मैं आपके द्वारा निर्मित आपकी ही कृति हूँ और मेरे माध्यम से ही आप घोर पाप कर्मों वाले जीवों को अपनी इच्छा से पीड़ित करते हैं। परन्तु अब श्री एकादशी के प्रभाव से अब मेरा ह्रास हो रहा है। आप कृपा करके मेरी रक्षा एकादशी के भय से करें। कोई भी पुण्य कर्म मुझे नहीं बाँध सकता हैं। परन्तु आपके ही स्वरुप में एकादशी मुझे प्रतिरोधित कर रही हैं। मुझे ऐसा कोई स्थान ज्ञात नहीं जहाँ मैं श्री एकादशी के भय से मुक्त रह सकूं। हे मेरे स्वामी! मैं आपकी ही कृति से उत्पन्न हूँ, इसलिए कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का पता बताईये जहाँ मैं निर्भीक होकर निवास कर सकूँ।”
तदुपरांत, पापपुरुष की स्थिति पर अवलोकन करते हुए भगवान् श्री विष्णु ने कहा, “हे पापपुरुष! उठो! अब और शोकाकुल मत हो। केवल सुनो, और मैं तुम्हे बताता हूँ कि तुम एकादशी के पवित्र दिन पर कहाँ निवास कर सकते हो। एकादशी का दिन जो त्रिलोक में लाभ देने वाला है, उस दिन तुम अन्न जैसे खाद्य पदार्थ की शरण में जा सकते हो।  अब तुम्हारे पास शोकाकुल होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि मेरे ही स्वरुप में श्री एकादशी देवी अब तुम्हे अवरोधित नहीं करेगी।” पापपुरुष को आश्वाशन देने के बाद भगवान श्री विष्णु अंतर्ध्यान हो गए और पापपुरुष पुनः अपने कर्मों को पूरा करने में लग गया। भगवान विष्णु के इस निर्देश के अनुसार, संसार भर में जितने भी पाप कर्म पाए जा सकते हैं वे सब इन खाद्य पदार्थ (अनाज) में निवास करते हैं। इसलिए वे मनुष्य गण जो कि जीवात्मा के आधारभूत लाभ के प्रति सजग होते हैं  वे कभी एकादशी के दिन अन्न नहीं ग्रहण करते हैं।

एकादशी व्रत धारण करना
सभी वैदिक शास्त्र एकादशी के दिन पूर्ण रूप से उपवास( निर्जल) करने की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिए आयु आठ से अस्सी तक के हर किसी को वर्ण आश्रम, लिंग भेद या और किसी भौतिक वैचारिकता की अपेक्षा कर के एकादशी के दिन व्रत करने की अनुशंसा की गयी है।
वे लोग जो पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक बार भोजन करके एकादशी व्रत करने की भी अनुशंसा की गयी हैं। परन्तु इस दिन किसी भी रूप में किसी को भी किसी भी स्थिति में अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये।
एकादशी पर भक्तिमयी सेवा
एकादशी को उसके सभी लाभों के साथ ऐसा उपाय या साधन समझना चाहिये जो सभी जीवों के परम लक्ष्य, भगवद भक्ति, को प्राप्त करने में सहायक हैं । भगवान् की कृपा से यह दिन भगवान् की भक्तिमयी सेवा करने के लिए अति शुभकारी एवं फलदायक बन गया है। पापमयी इच्छाओं से मुक्त हो एक भक्त विशुद्ध भक्तिमयी सेवा कर सकता है और ईश्वर की कृपापात्र बन सकता है।
इसलिए, भक्तों के लिए, एकादशी के दिन व्रत करना साधना-भक्ति के मार्ग में प्रगति करने का माध्यम है। व्रत करने की क्रिया चेतना का शुद्धिकरण करती है और भक्त को कितने ही भौतिक विचारों से मुक्त करती है। क्योंकि इस दिन की गई भक्तिमयी सेवा का लाभ किसी और दिन की गई सेवा से कई गुना अधिक होता है, इसलिए भक्त जितना अधिक से अधिक हो सके आज के दिन जप, कीर्तन, भगवान की लीला संस्मरण पर चर्चाएँ आदि अन्य भक्तिमयी सेवाएं किया करते हैं।
श्रील प्रभुपाद ने भक्तों के लिए इस दिन कम से कम पच्चीस जप माला संख्या पूरी करने, भगवान् के लीला संस्मरणों को पढ़ने एवं भौतिक कार्यकलापों में न्यूनतम संलग्न होने की अनुशंसा की है।  हालाँकि, वे भक्त जो पहले से ही भगवान् की भक्ति की सेवाओं( जैसे पुस्तक वितरण, प्रवचन आदि)  में सक्रियता से लगे हुए हैं उनके लिए उन्होंने कुछ छूट दी हैं, जैसे उन खाद्यों को वे इस दिन भी खा या पी सकते है जिनमे अन्न नहीं हैं।
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एकादशी का महात्म्य
श्रील जीव गोस्वामी द्वारा रचित, भक्ति-सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में से लिया हुआ एक श्लोक भर्त्सना करते हुए बताता है कि जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करते हैं वो मनुष्य अपने माता, पिता, भाइयों एवं अपने गुरु की मृत्यु का दोषी होते हैं, वैसे मनुष्य अगर वैकुंठ धाम तक भी पहुँच जाएँ तो भी वे वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। उस दिन किसी भी तरह के अन्न को ग्रहण करना सर्वथा वर्जित है, चाहे वह भगवान् विष्णु को ही क्यों न अर्पित हो।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो कोई भी एकादशी के दिन व्रत करता है वो सभी पाप कर्मों के दोषों से मुक्त हो जाता हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करता है। मूल सिद्धांत केवल उस दिन भूखे रहना नहीं है, बल्कि अपनी निष्ठा और प्रेम को गोविन्द, या कृष्ण पर और भी सुदृढ़ करना है। एकादशी के दिन व्रत का मुख्य कारण है अपनी शरीर की जरूरतों को घटाना और अपने समय का भगवान् की सेवा में जप या किसी और सेवा के रूप में व्यय करना है। उपवास के दिन सर्वश्रेष्ठ कार्य तो भगवान् गोविन्द के लीलाओं का ध्यान करना और उनके पावन नामों को निरंतर सुनते रहना है।
एकादशी व्रत दोनों हरे कृष्ण भक्तों एवं हिन्दुओं द्वारा चन्द्रमा के बढ़ते हुए शुक्ल पक्ष के ग्यारवे दिन किया जाता है। इस व्रत के पालन के लिए कौन सी चीजें खाई जा सकती हैं, सम्बन्धी कई नियम है जो कि व्रत की सख़्ती के अनुसार बदल सकते हैं। वैष्णव पंचांग के परामर्श के अनुसार ही व्रत करना चाहिये ताकि सही दिन व्रत किया जा सके।
एकादशी व्रत धारण करने के नियम
पूर्ण उपवास अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करने की बहुत ही उचित क्रिया है, परन्तु व्रत धारण करने का मुख्य कारण कृष्ण का स्मरण/ध्यान करना है। उस दिन शरीर की जरूरतों को सरल कर दिया जाता है, और उस दिन कम सो कर भक्तिमयी सेवा, शास्त्र अध्ययन और जप आदि पर ध्यान केन्द्रित करने की अनुशंसा की गई हैं।
व्रत का आरंभ सूर्योदय से होता है और अगले दिन के सूर्योदय तक चलता है, इसलिए अगर कोई इस बीच अन्न ग्रहण कर लेता है तो व्रत टूट जाता है। वैदिक शिक्षाओं में सूर्योदय के पूर्व खाने की अनुशंषा नहीं की गयी हैं खासकर एकादशी के दिन तो बिलकुल नहीं। एकादशी व्रत का पालन उस दिन जागने के बाद से ही मानना चाहिये। अगर व्रत गलती से टूट जाए तो उसे बाकि के दिन अथवा अगले दिन तक पूरा करना चाहिये।
वे जन जो बहुत ही सख्ती से एकादशी व्रत का पालन करते हैं उन्हें पिछली रात्रि के सूर्यास्त के बाद से कुछ भी नहीं खाना चाहिये ताकि वे आश्वस्त हो सके कि पेट में एकादशी के दिन कुछ भी बिना पचा हुआ भोजन शेष न बचा हो। बहुत लोग वैसा कोई प्रसाद भी नहीं ग्रहण करते जिनमें अन्न डला हो। वैदिक शास्त्र शिक्षा देते हैं कि एकादशी के दिन साक्षात् पाप (पाप पुरुष) अन्न में वास करता है, और इसलिए किसी भी तरह से उनका प्रयोंग नहीं किया जाना चाहिये ( चाहे कृष्ण को अर्पित ही क्यों न हो) । एकादशी के दिन का अन्न के प्रसाद को अगले दिन तक संग्रह कर के रखना चाहिये या फिर उन लोगों में वितरित कर देना चाहिये जो इसका नियम सख्ती से नहीं मानते या फिर पशुओं को दे देना चाहिये।

एकादशी व्रत को कैसे तोड़े
अगर व्रत निर्जल( पूर्ण उपवास बिना जल ग्रहण किये) किया गया है तो व्रत को अगले दिन अन्न से तोड़ना आवश्यक नहीं है। व्रत को चरणामृत( वैसा जल जिससे कृष्ण के चरणों को धोया गया हो), दूध या फल से वैष्णव पंचांग में दिए नियत समय पर तोड़ा जा सकता है। यह समय आप किस स्थान पर हैं उसके अनुसार बदलता रहता है। अगर पूर्ण एकादशी के स्थान पर फल, सब्जियों और मेवों के प्रयोग से एकादशी की गयी हैं तो उसे तोड़ने के लिए अन्न ग्रहण करना अनिवार्य हैं।
खाद्य पदार्थ जो एकादशी व्रत में खाए जा सकते हैं
श्रीला प्रभुपाद  ने पूर्ण एकादशी करने के लिए कभी बाध्य नहीं किया, उन्होंने सरल रूप से भोजन करके जप एवं भक्तिमयी सेवा पर पूरा ध्यान केन्द्रित करने को कहा। निम्नलिखित वस्तुएं और मसालें व्रत के भोजन में उपयोग किये जा सकते हैं:
सभी फल (ताजा एवं सूखें);
सभी मेवें बादाम आदि और उनका तेल;
हर प्रकार की चीनी;
कुट्टू
आलू, साबूदाना, शकरकंद;
नारियल;
जैतून;
दूध;
ताज़ी अदरख;
काली मिर्च और
सेंधा नमक ।
एकादशी पर वर्जित खाद्य
अगर अन्न का एक भी कण गलती से भी ग्रहण कर लिया गया हो तो एकादशी व्रत विफल हो जाता है। इसलिए उस दिन भोजन पकाते समय काफी सावधानी बरतनी चाहिये और मसालों को केवल नए पेकिंग से, जो अन्न से अनछुए हो, से ही लेना चाहिये। निम्नलिखित खाद्यों का प्रयोग एकादशी के दिन निषेध बताया गया है :
सभी प्रकार के अनाज (जैसे बाजरा, जौ, मैदा, चावल और उरद दाल आटा) और उनसे बनी कोई भी वस्तु;
मटर, छोला, दाल और सभी प्रकार की सेम, उनसे बनी अन्य वस्तुएं जैसे टोफू;
नमक, बेकिंग सोडा, बेकिंग पावडर, कस्टर्ड और अन्य कई मिठाईयों का प्रयोग नहीं किया जाता क्योंकि उनमें कई बार चावल का आटा मिला होता है;
तिल (सत-तिल एकादशी अपवाद है, उस दिन तिल को भगवान् को अर्पित भी किया जाता है और उसको ग्रहण भी किया जा सकता है) और
मसालें जैसे कि हींग, लौंग, मेथी, सरसों, इमली, सौंफ़ इलायची, और जायफल।
एकादशी के दिन व्रत धारण करना कृष्ण भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण तप है और यह आध्यात्मिक प्रगति को बढ़ाने के लिए किया जाता है। बिलकुल निराहार व्रत करके कमजोर होकर अपनी कार्यों एवं भक्तिमयी सेवाओं में अक्षम हो जाने से बेहतर है थोड़ा उन चीजों को खाकर व्रत करना जो व्रत में खायी जा सकती हैं।

सनातन धर्म की वैज्ञानिकता

कमाल की बात है "महाकाल" से शिव ज्योतिर्लिंगों के बीच कैसा सम्बन्ध है......??
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उज्जैन से शेष ज्योतिर्लिंगों की दूरी भी है रोचक-
सोमनाथ- 777 किमी
ओंकारेश्वर- 111 किमी
भीमाशंकर- 666 किमी
काशी विश्वनाथ- 999 किमी
मल्लिकार्जुन-999 किमी
केदारनाथ- 888 किमी
त्रयंबकेश्वर555 किमी
बैजनाथ- 999 किमी
रामेश्वरम- 1999 किमी
घृष्णेश्वर - 555 किमी
जय महाकाल
उज्जैन मप्र
सनातन धर्म में कुछ भी बिना कारण के नही होता था ।
उज्जैन पृथ्वी का केंद्र माना जाता है । जो सनातन धर्म में हजारों सालों से केंद्र मानते आ रहे है इसलिए उज्जैन में सूर्य की गणना और ज्योतिष गण ना के लिए मानव निर्मित यंत्र भी बनाये गये है करीब 2050 वर्ष पहले ।
और जब करीब 100 साल पहले पृथ्वी पर काल्पनिक रेखा (कर्क)अंग्रेज वैज्ञानिक द्वारा बनायीं गयी तो उनका मध्य भाग उज्जैन ही निकला । आज भी वैज्ञानिक उज्जैन ही आते है सूर्य और अन्तरिक्ष की जानकारी के लिये ।
हिन्दू धर्म की मान्यताये पुर्णतः वैज्ञानिक आधार पर निर्मित की गयी है ।
बस हम उसे दुनिया में पेटेंट नही करवा सके ।

!! जय श्री महाकाल !!
हर हर महादेव !!
ऊँ नम: शिवाय !!

Friday 18 December 2015

Mastani / मस्तानी

                          मस्तानी

एक अत्यन्त सुन्दर और बहादुर महिला थी। वह पेशवा बाजीराव प्रथम की प्रेयसी थी।
परिचय
१८वीं शताब्दी के पूर्व मध्यकाल में मराठा इतिहास में मस्तानी का विशेष उल्लेख मिलता है। बखर और लेखों से मालूम पड़ता है कि मस्तानी अफ़गान और गूजर जाति की थी। इनका जन्म नृत्य करनेवाली जाति में हुआ था। गुजरात के गीतों में इन्हें 'नृत्यांगना' या 'यवन कांचनी' के नाम से संबोधित किया गया है।
मस्तानी अपने समय की अद्वितीय सुंदरी एवं संगीत कला में प्रवीण थी। इन्होंने घुड़सवारी और तीरंदाजी में भी शिक्षा प्राप्त की थी। गुजरात के नायब सूबेदार शुजाअत खाँ और मस्तानी की प्रथम भेंट १७२४ ई० के लगभग हुई। चिमाजी अप्पा ने उसी वर्ष शुजाअत-खान पर आक्रमण किया। युद्ध क्षेत्र में ही शुजाअत खाँ की मृत्यु हुई। लूटी हुई सामग्री के साथ मस्तानी भी चिमाजी अप्पा को प्राप्त हुई। चिमाजी अप्पा ने उन्हें बाजीराव के पास पहुँचा दिया। तदुपरांत मस्तानी और बाजीराव एक दूसरे के लिए ही जीवित रहे।
१७२७ ई० में प्रयाग के सूबेदार मोहम्मद खान बंगश ने राजा छत्रसाल (बुंदेलखंड) पर चढ़ाई की। राजा छत्रसाल ने तुरंत ही पेशवा बाजीराव से सहायता माँगी। बाजीराव अपनी सेना सहित बुंदेलखंड की ओर बढ़े। मस्तानी भी बाजीराव के साथ गई। मराठे और मुगल दो बर्षों तक युद्ध करते रहे। तत्पश्चात् बाजीराव जीते। छत्रसाल अत्यंत आनंदित हुए। उन्होंने मस्तानी को अपनी पुत्री के समान माना। बाजीराव ने जहाँ मस्तानी के रहने का प्रबंध किया उसे 'मस्तानी महल' और 'मस्तानी दरवाजा' का नाम दिया।
मस्तानी ने पेशवा के हृदय में एक विशेष स्थान बना लिया था। उसने अपने जीवन में हिंदू स्त्रियों के रीति रिवाजों को अपना लिया था। बाजीराव से संबंध के कारण मस्तानी को भी अनेक दु:ख झेलने पड़े पर बाजीराव के प्रति उसका प्रेम अटूट था। मस्तानी के १७३४ ई० में एक पुत्र हुआ। उसका नाम शमशेर बहादुर रखा गया। बाजीराव ने काल्पी और बाँदा की सूबेदारी उसे दी, शमशेर बहादुर ने पेशवा परिवार की बड़े लगन और परिश्रम से सेवा की। १७६१ ई० में शमशेर बहादुर मराठों की ओर से लड़ते हुए पानीपत के मैदान में मारा गया।
१७३९ ई० के आरंभ में पेशवा बाजीराव और मस्तानी का संबंध विच्छेद कराने के असफल प्रयत्न किए गए। १७३९ ई० के अंतिम दिनों में बाजीराव को आवश्यक कार्य से पूना छोड़ना पड़ा। मस्तानी पेशवा के साथ न जा सकी। चिमाजी अप्पा और नाना साहब ने मस्तानी के प्रति कठोर योजना बनाई। उन्होंने मस्तानी को पर्वती बाग में (पूना में) कैद किया। बाजीराव को जब यह समाचार मिला, वे अत्यंत दु:खित हुए। वे बीमार पड़ गए। इसी बीच अवसर पा मस्तानी कैद से बचकर बाजीराव के पास ४ नवम्बर १७३९ ई० को पटास पहुँची। बाजीराव निश्चिंत हुए पर यह स्थिति अधिक दिनों तक न रह सकी। शीघ्र ही पुरंदरे, काका मोरशेट तथा अन्य व्यक्ति पटास पहुँचे। उनके साथ पेशवा बाजीराव की माँ राधाबाई और उनकी पत्नी काशीबाई भी वहाँ पहुँची। उन्होंने मस्तानी को समझा बुझाकर लाना आवश्यक समझा। मस्तानी पूना लौटी। १७४० ई० के आरंभ में बाजीराव नासिरजंग से लड़ने के लिए निकल पड़े और गोदावरी नदी को पारकर शत्रु को हरा दिया। बाजीराव बीमार बड़े और २८ अप्रैल १७४० को उनकी मृत्यु हो गई।
मस्तानी बाजीराव की मृत्यु का समाचार पाकर बहुत दु:खित हुई और उसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह सकी। आज भी पूना से २० मील दूर पाबल गाँव में मस्तानी का मकबरा उनके त्याग दृढ़ता तथा अटूट प्रेम का स्मरण दिलाता है।

वादियों का प्रदेश उत्तराखंड वादियों का प्रदेश उत्तराखंड

शीतल आबोहवा, हरेभरे मैदान और खूबसूरत पहाडि़यां, ऐसा लगता है जैसे प्रकृति ने यहां अपने अनुपम सौंदर्य की छटा दिल खोल कर बिखेरी है. यही वजह है कि देशी और विदेशी पर्यटक यहां अनायास खिंचे चले आते हैं और सुकून अनुभव करते हैं. अपनी इन्हीं खूबियों के चलते उत्तराखंड घुमक्कड़ों की चहेती जगह है.

भारत के राज्यों में उत्तराखंड पर्यटन के लिहाज से अद्वितीय है. राज्यभर में पूरे साल देशविदेश के सैलानियों का तांता लगा रहता है. यहां पर्यटन स्थलों की भरमार है, प्राकृतिक खूबसूरती है, हरियाली है, पर्वत हैं, झीलें हैं, कलकल करती नदियां हैं.

नैनीताल

नैनीताल की बड़ी खासीयत यहां के ताल हैं. इसी कारण नैनीताल को तालों का शहर भी कहा जाता है. यहां पर कम खर्च में हिल टूरिज्म का भरपूर मजा लिया जा सकता है. काठगोदाम, हल्द्वानी और लालकुआं नैनीताल के करीबी रेलवे स्टेशन हैं. इन स्टेशनों से पर्यटक बस या टैक्सी के द्वारा आसानी से नैनीताल पहुंच सकते हैं. यह हनीमून कपल के लिए पसंदीदा जगह है.

नैनीताल को अंगरेजों ने हिल स्टेशन के रूप में विकसित किया था. नैनीताल शहर के बीचोंबीच नैनी  झील है. इस  झील की बनावट आंखों की तरह की है. यहां पर वोटिंग का मजा लिया जा सकता है. इसी कारण इस को नैनी और शहर को नैनीताल कहा जाता है. काठगोदाम नैनीताल का सब से करीबी रेलवे स्टेशन है. काठगोदाम से नैनीताल के लिए जब आगे बढ़ते हैं तो ज्योलिकोट में चीड़ के घने वन दिखाई पड़ते हैं. यहां से कुछ दूरी पर कौसानी, रानीखेत और जिम कौर्बेट नैशनल पार्क भी पड़ते हैं.

ज्योलिकोट कई पहाडि़यों से घिरी हुई जगह है.  गरमियों के सीजन में नैनीताल में रुकने की जगह नहीं मिलती, ऐसे में जिन लोगों को एकांत पसंद हो वे नैनीताल घूम कर ज्योलिकोट में रुक सकते हैं. यहां पर ठहरने के लिए कई हिल रिजोर्ट हैं. यहां के जंगलों में खूबसूरत पक्षियों के कलरव को सुना जा सकता है.  सीजन में बर्फबारी को भी यहां से देख सकते हैं. नैनीताल के आसपास कई खूबसूरत जगहें हैं, जहां घूमने का मजा भी लिया जा सकता है.

दर्शनीय स्थल

भीमताल : इस की लंबाई 448 मीटर और चौड़ाई 175 मीटर है. भीमताल की गहराई 50 मीटर तक है. भीमताल के 2 कोने तल्लीताल और मल्लीताल के  दोनों कोने सड़क से जुडे़ हैं. नैनीताल से भीमताल की दूरी 22.5 किलोमीटर है.

नौकुचियाताल : यह भीमताल से 3 किलोमीटर दूर उत्तरपूर्व की ओर 9 कोनों वाला ताल है. नैनीताल से इस की दूरी 26 किलोमीटर है. नौकुचियाताल की खासीयत इस के टेढ़ेमेढे़ कोने हैं. ये 9 कोने किसी को एकसाथ दिखाई नहीं देते हैं.

सातताल : यह कुमाऊं इलाके का सब से खूबसूरत ताल है. इतना सुंदर कोई दूसरा ताल नहीं है. इस ताल तक पहुंचने के लिए भीमताल से हो कर रास्ता गुजरता है. भीमताल से इस की दूरी 4 किलोमीटर है. नैनीताल से यह 21 किलोमीटर दूर स्थित है.  साततालों में नलदमयंती ताल सब से अलग है.

खुर्पाताल : यह नैनीताल से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.  इस ताल का गहरा पानी इस की सब से बड़ी सुंदरता है.  यहां पर पानी के अंदर छोटीछोटी मछलियों को तैरते हुए देखा जा सकता है. इन को रूमाल के सहारे पकड़ा भी जा सकता है. खुर्पाताल के साफ और स्थिर पानी में पहाड़ों की सुंदरता को देखा जा सकता है.

रोपवे : यह नैनीताल का सब से प्रमुख आकर्षण है. यह स्नोव्यू पौइंट और नैनीताल को जोड़ता है. यह मल्लीताल से शुरू होता है. यहां पर 2 ट्रौलियां हैं जो सवारियों को ले कर एक तरफ से दूसरी तरफ जाती हैं. रोपवे से पूरे नैनीताल की खूबसूरती को देखा जा सकता है. नैनीताल का माल रोड यहां का सब से आधुनिक बाजार है. माल रोड पर बहुत सारे होटल, रेस्तरां, दुकानें और बैंक हैं.

कौसानी

कौसानी को भारत की सब से खूबसूरत जगह माना जाता है. कौसानी उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले से 53 किलोमीटर उत्तर में बसा है. यह बागेश्वर जिले में आता है. यहां से हिमालय की सुंदर वादियों को देखा जा सकता है. कौसानी पिंगनाथ चोटी पर बसा है. यहां पहुंचने के लिए रेल मार्ग से पहले काठगोदाम आना पड़ता है. यहां से बस या टैक्सी के द्वारा कौसानी पहुंचा जा सकता है. दिल्ली के आनंद विहार बस स्टेशन से कौसानी के लिए बस सेवा मौजूद है. अपने खूबसूरत प्राकृतिक नजारे और आकर्षण के चलते कौसानी घूमने वालों को अपनी ओर खींचती है. बर्फ से ढकी नंदा देवी चोटी का नजारा यहां से भव्य दिखाई देता है.

दर्शनीय स्थल

कौसानी में सब से अच्छी घूमने वाली जगह यहां के चाय बागान को माना जाता है. यहां आने वाले यहां की चाय की खरीदारी करना नहीं भूलते हैं. यहां के अनासक्ति आश्रम को गांधीजी का आश्रम भी कहा जाता है. यह आश्रम अध्ययन कक्ष और पुस्तकालय देखने वालों को आकर्षित करता है.

कौसानी से बर्फ से ढके पहाड़ों को भी देखा जा सकता है. यहां से चौखंबा, नीलकंठ, नंदाघुंटी, त्रिशूल, नंदादेवी, नंदाखाट, नंदाकोट और पंचकुली शिखर देखे जा सकते हैं.    

देहरादून                           

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून शिवालिक पहाडि़यों में बसा एक बहुत ही खूबसूरत शहर है. घाटी में बसे होने के कारण इस को दून घाटी भी कहा जाता है. देहरादून में दिन का तापमान मैदानी इलाके सा होता है पर शाम ढलते ही यहां का तापमान कम हो जाता है. देहरादून के पूर्व और पश्चिम में गंगायमुना नदियां बहती हैं. इस के उत्तर में हिमालय और दक्षिण में शिवालिक पहाडि़यां हैं. शहर को छोड़ते ही जंगल का हिस्सा शुरू हो जाता है. यहां पर वन्यप्राणियों को भी देखा जा सकता है. देहरादून प्राकृतिक सौंदर्य के अलावा शिक्षा संस्थानों के लिए भी प्रसिद्ध है. यहां के स्कूलों में भारतीय सैन्य अकादमी, दून स्कूल और ब्राउन स्कूल प्रमुख हैं.

दर्शनीय स्थल

सहस्रधारा : देहरादून में घूमने के लिए कई जगहें हैं. जो यहां आता है वह मसूरी जरूर घूमने जाता है. घूमने के हिसाब से देखें तो सहस्रधारा सब से करीब की जगह है. सहस्रधारा गंधक के पानी का प्राकृतिक स्रोत है. देहरादून से इस की दूरी 14 किलोमीटर है. जंगल से घिरे इस इलाके में बालदी नदी में गंधक का स्रोत है.  इस का पानी भर कर लोग घरों में ले जाते हैं. कहते हैं कि गंधक का पानी स्किन की बीमारियों को दूर करने में सहायक होता है.

गुच्चू पानी : सहस्रधारा के बाद गुच्चू पानी नामक जगह भी देखने लायक है. यह शहर से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. गुच्चू पानी जलधारा है. इस का पानी गरमियों में ठंडा और जाड़ों में गरम रहता है. गुच्चू पानी आने वाले लोग अनारावाला गांव तक कार या बस से आते हैं.

खलंग स्मारक : देहरादून से सहस्रधारा जाने वाले रास्ते के बीच ही खलंग स्मारक बना हुआ है. यह अंगरेजों और गोरखा सिपाहियों के बीच हुए युद्ध का गवाह है.

चंद्रबदनी :  देहरादून- दिल्ली मार्ग पर बना चंद्रबदनी एक बहुत ही सुंदर स्थान है. देहरादून से इस की दूरी 7 किलोमीटर है. यह जगह चारों ओर पहाडि़यों से घिरी हुई है. यहां पर एक पानी का कुंड भी है. अपने सौंदर्य के लिए ही इस का नाम चंद्रबदनी पड़ गया है.

लच्छीवाला : देहरादून से 15 किलोमीटर दूर जंगलों के बीच बसी इस खूबसूरत जगह को लच्छीवाला के नाम से जाना जाता है. जंगल में बहती नदी के किनारे होने के कारण यहां पर लोग घूमने जरूर आते हैं.

कालसी : देहरादून- चकराता रोड पर 50 किलोमीटर की दूरी पर कालसी स्थित है. यहां पर सम्राट अशोक के प्राचीन शिलालेख देखने को मिल जाते हैं. यह लेख पत्थर की बड़ी शिला पर पाली भाषा में लिखा है. पत्थर की शिला पर जब पानी डाला जाता है तभी यह दिखाई देता है.

चीला वन्यजीव संरक्षण उद्यान : गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर वन्यजीवों के संरक्षण के लिए 1977 में चीला वन्य संरक्षण उद्यान बनाया गया था. यहां पर हाथी, टाइगर और भालू जैसे तमाम वन्य जीव पाए जाते हैं. नवंबर से जून का समय यहां घूमने के लिए सब से उचित रहता है. देहरादून से यहां आने के लिए अपने साधन का प्रयोग करना पड़ता है.

मसूरी

मसूरी दुनिया की उन जगहों में गिनी जाती है जहां पर लोग बारबार जाना चाहते हैं. इसे पर्वतों की रानी भी कहा जाता है. मसूरी उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 35 किलोमीटर दूर स्थित है. देहरादून तक आने के लिए देश के हर हिस्से से रेल, बस और हवाई जहाज की सुविधा उपलब्ध है. मसूरी हिमालय पर्वतमाला की शिवालिक श्रेणी में आती है. इस के उत्तर में बर्फ से ढके पर्वत दिखते हैं और दक्षिण में खूबसूरत दून घाटी दिखती है.

मुख्य आकर्षण

गन हिल : मसूरी के करीब दूसरी ऊंची चोटी पर जाने के लिए रोपवे का मजा घूमने वाले लेते हैं. यहां पैदल रास्ते से भी पहुंचा जा सकता है. यह रास्ता माल रोड पर कचहरी के निकट से जाता है. यहां पहुंचने में लगभग 20 मिनट का समय लगता है. रोपवे की लंबाई केवल 400 मीटर है. गन हिल से हिमालय पर्वत शृंखला देखा जा सकता है.

म्युनिसिपल गार्डन :  मसूरी का कंपनी गार्डन आजादी से पहले तक बोटैनिकल गार्डन कहलाता था.  कंपनी गार्डन क ा  निर्माण भूवैज्ञानिक डा. एच फाकनर लोगी ने किया था. 1842 के आसपास उन्होंने इस जगह को सुंदर उद्यान में बदल दिया. इसे कंपनी गार्डन या म्युनिसिपल गार्डन कहा जाने लगा.

कैमल बैक रोड : कुल 3 किलोमीटर लंबी यह रोड रिंक हौल के समीप कुलीर बाजार से शुरू होती है. यह लाइब्रेरी बाजार पर जा कर खत्म होती है. इस सड़क पर पैदल चलना या घुड़सवारी करना अच्छा लगता है. सूर्यास्त का दृश्य बहुत सुंदर दिखाई पड़ता है.

कैंपटी फौल : यमुनोत्तरी रोड पर मसूरी से 15 किलोमीटर दूर 4500 फुट की ऊंचाई पर स्थित कैंपटी फौल मसूरी की सब से सुंदर जगह है. यह मसूरी का सब से बड़ा और खूबसूरत  झरना है. यह चारों ओर ऊंचे पहाड़ों से घिरा हुआ है. कैंपटी फौल में नहाने के बाद पर्यटक अपने को तरोताजा महसूस करते हैं.

मसूरी  झील : मसूरी- देहरादून रोड पर मूसरी  झील के नाम से नया पर्यटन स्थल बनाया गया है. यह मसूरी से 6 किलोमीटर दूर है. पैडल बोट से  झील में घूमने का आनंद लिया जा सकता है.

वाम चेतना केंद्र : टिहरी बाईपास रोड पर लगभग 2 किलोमीटर दूर एक नया पिकनिक स्पौट बनाया गया है. यहां तक पैदल या टैक्सी से पहुंचा जा सकता है. इस पार्क में वन्यजीव जैसे घुरार, कंणकर, हिमालयी मोर और मोनल आदि रहते हैं.

दर्शनीय स्थल

यमुना ब्रिज : मसूरी से 27 किलोमीटर चकराता-बारकोट रोड पर यमुना ब्रिज स्थित है. यह फिशिंग के लिए सब से अच्छी जगह है. परमिट ले कर यहां फिशिंग की जा सकती है.

चंबा : मसूरी से लगभग 56 किलोेमीटर दूर चंबा स्थित है. इस को टिहरी भी कहते हैं. यहां पहुंचने के लिए लोगों को जिस सड़क से हो कर गुजरना पड़ता है वह फलों के बागानों से घिरी है. वसंत के मौसम में फलों से लदे वृक्ष देखते ही बनते हैं.

ट्रैकिंग का मजा

मसूरी-नागटिब्बा : मसूरी से नागटिब्बा मार्ग की दूरी लगभग 62 किलोमीटर है. नागटिब्बा से हिमालय की चोटी के शानदार दृश्य को देखा जा सकता है. यहां से पंथवाडी, नैनबाग और कैंपटी फौल की दूरी को कवर किया जा सकता है.

मसूरी-धनौल्टी : 26 किलोमीटर लंबे मसूरीधनौल्टी मार्ग पर हिमालय की चोटियों और घाटी के कुछ दिल दहला देने वाले दृश्य दिखाई देते हैं.

अल्मोड़ा                            

यह उत्तराखंड का सब से खास शहर है. हल्द्वानी, काठगोदाम और नैनीताल से बस या टैक्सी से यहां पहुंचा जा सकता है.

दर्शनीय स्थल

भवाली के रास्ते से जब अल्मोड़ा के लिए जाया जाता है तो रास्ते में कैंची जगह पड़ती है. यह भवाली से 7 किलोमीटर की दूरी पर है. प्रकृति का आनंद लेने वाले पर्यटकों के रुकने के लिए यहां पर धर्मशालाएं बनी हैं. कैंची से आगे गरमपानी नामक छोटी सी जगह है. यहां पर्यटक खानेपीने के लिए रुकते हैं. यहां का पहाड़ी खाना घूमने वालों को खूब पसंद आता है. इस से कुछ आगे बढ़ने पर खैरना आता है. खैरना मछली के शिकार के लिए बहुत प्रसिद्ध है. अल्मोड़ा के किले पर्यटकों को बहुत अच्छे लगते हैं. कालीमठ अल्मोड़ा से 5 किलोमीटर दूर है. इस के एक ओर से हिमालय दिखाई देता है तो दूसरी ओर अल्मोड़ा शहर दिखता है. यहां घंटों बैठ कर प्राकृतिक सौंदर्य को निहारा जा सकता है.

अल्मोड़ा से 3 किलोमीटर दूर सिमतोला पिकनिक स्पौट है. अल्मोड़ा के राजकीय संग्रहालय के साथ ही साथ यहां का ब्राइट ऐंड कौर्नर भी घूमने वाली खास जगह है. यहां से उगते और डूबते सूरज को देखना अद्भुत लगता है. यह जगह बस स्टेशन से 2 किलोमीटर की दूरी पर है. लालबाजार में वूलेन क्लौथ लेना पर्यटक नहीं भूलते हैं.