बाबा बन्दा सिंह बहादुर : मुगलों से लड़ने के लिए संत से सिपाही बने योद्धा की कहानी
बन्दा सिंह बहादुर का जन्म 1670 में ग्राम तच्छल किला, पुंछ में श्री रामदेव के घर में हुआ. उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था. युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया. इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया.
यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया. उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये. अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे.
इसी दौरान गुरु गोविन्दसिंह जी माधोदास की कुटिया में आये. उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे. उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त मुगल आतंक से जूझने को कहा. इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया.
गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया. फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा.
बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये. उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा. फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया. जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा. इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी.
उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर 1715 को उन्हें पकड़ लिया. उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया.
उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे. इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे. युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया. रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा सिंह बहादुर का माँस नोचा जाता रहा.
काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया.
दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है, वहाँ 7 मार्च 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी.
एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है. बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया – मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था. क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है.
बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है. यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया. भयभीत करने के लिए उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया.
बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया. इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस बन्दा के मुँह में ठूँस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे. गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी. फिर भी आठ जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया. इस प्रकार बन्दा सिंह बहादुर अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये.
बाबा बंदा सिंह बहादुर जी की तीसरी शहीदी शताब्दी पर उनकी शहादत को नमन करते हुए बारापुला पुल का नाम बाबा बंदा सिंह बहादुर सेतु रखा गया है।
Sunday, 10 December 2017
बंदा सिंह बहादुर
Naga नागा शाधू
नागा साधु,हिन्दू धर्म के रक्षक। !!!
शरीर पर गाढ़ा भभूत लागये,बिना किसी वस्त्र के,पूस की ठंड में लड़कों की भांति जोशीले नागा साधु हिन्दू धर्म के रक्षक है।
आपने अकसर इलाहाबाद,उज्जैन,नासिक इत्यादि जगहों पर हर 6 और 12 वर्ष के अंतराल पर आयोजित होने वाले अर्ध-कुंभ और कुंभ मेलो में नागा साधुओ को अवश्य देखा होगा। इन नागाओं की शुरुवात आदि गुरु शंकराचार्य जी ने की थी।दरअसल हर नागा के जीवन मे ये पल अनमोल होता है,कुंभ ही वो अवसर है जिसकी प्रतीक्षा में वो वर्षो का अपना जीवन हिमालय चोटी की बर्फ़ीली और खतरों से भरी गुफाओं में गुजार देता है। कुंभ मेलो में ही नए नागा साधुओ को शपथ दिलाई जाती है और हर पवित्र स्नान के अवसर पर डुबकी सर्वप्रथम यही साधु लगाते है।
#नागा बनने की प्रक्रिया !
नागा बनना कतई आसान नही होता,इसमे कम से कम 6 वर्ष लगते है और इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के सिवा कुछ नही पहनते तथा कुंभ मेले में इस पंथ में शामिल होने के साथ ही वो अपनी लंगोट का भी त्याग कर देते है। कोई भी अखाड़ा जांच करके ही नए सदस्य को अपने मे शामिल करता है,पहलव उसे ब्रह्मचर्य फिर महापुरुष और अंत मे अवधूत बनकर रहना पड़ता है। इसकी अंतिम प्रक्रिया कुंभ में होती है जहां वो स्वयं का पिंडदान करके इंसानी जीवन को समाप्त करके नागा जीवन मे प्रवेश करते है।
#वर्तमान स्थिति.....
भारत की आजादी के बाद इन नागाओं ने अपना सैन्य जीवन त्याग दिया और हिन्दू धर्म के रक्षक और प्रचारक के तौर पर आज भी कार्यरत है। इस वक़्त 13 प्रमुख अखाड़ो के माध्यम से ये अपनी बात रखते है जिसमे निरंजनी,जूना,महानिर्वाण,अटल,निर्मोही अखाड़ा इत्यादि प्रमुख है।
#जीवन शैली.......
इन नागाओं के आश्रम हरिद्वार में स्थित बाकी आश्रमो से कोसो दूर होते है जहां ये कठिन तप से जीवन व्यतीते करते है। स्वभाव से हठी और क्रोध आने पर ये साक्षात भगवान शिव नजर आते है,परंतु शायद ही इन्होंने कभी अपना क्रोध दिखाया हो,यदि कोई इन्हें बेवजह तंग करता है तो ये जरूर गुस्सा हो उठते है। नागा साधु तीन तरह के योग करते है जो इन्हें भीषण ठंड से बचाकर रखता है,ये अपने खानपान में विशेष संयम बरतते है। कुंभ मेला में चाहे भारतीय हो अथवा विदेशी सबमे इनको देखने की जिज्ञासा होती है,ये सिर्फ शाही स्नान के वक़्त प्रकट होते है और जनता तथा मीडिया से खास दूरी बनाकर रखते है। ज्यादातर नागा पुरुष ही होते है अपितु कुछ महिलाएं भी नागा होती है जो सम्पूर्णतः नग्न नही किंतु एक गेरुवा वस्त्र ओढ़कर जीवन व्यतीत करती है।
आज के वर्तमान परिपेक्ष में इस लेख के माध्यम से आज की जनरेशन को नागा साधुओ से परिचय कराना मात्र है। विदेशी मीडिया और वहां की जनता इन साधुओ को देखकर हमारा मजाक उड़ाती है और इसे नौटंकी मानती है परंतु इन साधुओ के तप के बारे में जानकर कोई हक्के-बक्के हो उठते है। हमे इन साधुओ का मजाक नही उड़ाना चाहिए क्योंकि ये हमारे रक्षक है और हिन्दू धर्म के लिए अपना प्राण त्यागने से भी नही चूकते।
ॐ नमः शिवाय
सहिष्णुता
शब्दों के जादूगर तुषार सिंह का असहिष्णुता पर लिखा गया मर्यादित लेख । कृपया टिप्पणी करने में भी मर्यादा बनाये रखें ये मेरा मित्रों से विशेष आग्रह है ॥
तुम्हारे आदाब के अभिवादन का उत्तर नमस्कार से देते ही मैं कट्टर हो जाता हूँ अगर सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ता हूँ तो संघी हूँ अगर धोती कुरता पहनता हूँ तो भारतीय नहीं रहता तुरंत हिन्दू हो जाता हूँ तिलक लगाने से मुझे डर है कहीं भगवा आतंकी न घोषित हो जाऊँ
मैं अपने ही देश में अपने तौर तरीके से क्यों नहीं रह सकता,मेरी पहचान छीनी जा रही है क्यों?
मुझे मेरे ही घर से निकालने की ये आखिर किसकी साजिश है ?
आकाशवाणी जाता हूँ तो वहाँ UGC से मान्यता प्राप्त होने के बावजूद ज्योतिर्विज्ञान (ज्योतिष) पे आधारित लेख नहीं पढ़ सकता हमारा विज्ञान भी सांप्रदायिक करार दे दिए गया पांच हज़ार साल पुराने हमारे ज्ञान के भंडार वेद आदि कल की आई तुम्हारी एक किताब के नीचे क्यों दबाये जा रहे हैं क्यूँ मुझे अपने ज्ञान की मान्यता के लिए अपने ही देश के कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं तब कहीं जाकर विश्वविद्यालयों में वो दया के तौर पे पढ़ाये जाते हैं
सरकार बहुमत से चुनी जाती है और वो काम करती है अल्पसंख्यक कल्याण के लिए क्यों? अगर हम बहुसंख्यक हैं और हमारे बहुमत से चुनी हमारी सरकार हमारे ही कल्याण के लिए योजनाएँ क्यों नहीं बना सकती?
क्यों हमें अपने पवित्र पशु गाय की रक्षा के लिए बकरी की तरह मिमियाना पड़ता है?
क्यों मुझे हिंदुत्व की बात कहने के लिए भारतीयता का आवरण ओढ़ना पड़ता है? हम अपने धर्म की बात आखिर अपनी ही मातृभूमि पे क्यों नहीं कर सकते? क्यों मुझे ही सर्वधर्म समभाव की बात करनी पड़ती है क्यों मैं अपने धर्म की बात दृढ़ता से कहने पे कट्टर हो जाता हूँ?
इन सारे क्यों का उत्तर है एक क्योंकि हम सहिष्णु हैं इसलिए क्योंकि हम वसुधैव कुटुम्बकम् की नीति को मानने वाले हैं तुम उन्हें असहिष्णु कह रहे हो जिनके पूर्वज युद्ध भी नियमों से किया करते थे सूर्यास्त के बाद शत्रु चाहे बगल में भी हो उसका वध नहीं करते थे निहत्ते पे वार नहीं करते थे हमारी इन्हीं अच्छाइयों के कारण हम पराजित हुए क्योंकि हम युद्ध में भी सहिष्णु थे जिसका परिणाम आज ये है कि तुम हमें असहिष्णु कह पा रहे हो
पृथ्वीराज चौहान क्यों तुम असहिष्णु न हुए और पहली ही बार में पराजित गोरी का सर धड़ से अलग क्यों न कर दिया ?
तुम अभिनेता हो और मेरे थोड़े से मित्र भी पर एक बात बताओ अगर राष्ट्र में इतनी ही असहिष्णुता रही है तो तुम मुस्लिम होने के बावजूद इतने बड़े सितारे कैसे बन गए? ठीक है तुम अवार्ड वापस करो पर पहले हम जैसे सभी असहिष्णुओं के वो पैसे वापस करो जो हमने तुम्हारी सारी फिल्मों के टिकेट पे खर्च किये थे सब समझ आ जायेगा जब पदक की जगह भिक्षा पात्र हाथ में आ जायेगा
पहनाई गई फूलों की माला को वापस करने से सम्मान वापस नहीं होता अगर पुरस्कार वापस करना है तो पुरस्कार देने में लगा वो सारा समय भी वापस करो नहीं तो ये स्वांग बंद करो।
अपने लिए विशेष दर्जा मांग कर समानता की बात करना जायज है क्यों ??
(मैंने पूरी शालीन भाषा में अपनी बात रखी है कृपया इस पोस्ट की मर्यादा बनाये रखें अपशब्दों का प्रयोग नपुंसक करते हैं ये ध्यान रहे शेयर करते समय भी भाषा की मर्यादा बनाये रखने को बोलें क्योंकि अपशब्द शब्दों की चोट को कमजोर करते हैं )
#मैं_सहिष्णु_हूँ_नपुंसक_नहीं
विष्णु स्तम्भ
सत्य इतिहास
कुतुबुद्दीन ऐबक और क़ुतुबमीनार---
किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संसकृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें. इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बे हिसाब जुल्म किये थे।
अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को बनवाया या विष्णू स्तम्भ (कुतूबमीनार) से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?
कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाबी रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया।
अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा।
कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह "अढाई दिन का झोपड़ा" के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी "कुतुबुद्दीन" को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति "बख्तियार खिलजी" (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था।
कुतुबुद्दीन कुल चार साल (१२०६ से १२१० तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाया।
जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेदशाला थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर "विक्रम संवत" का आविष्कार किया था. यहाँ पर २७ छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो २७ नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णू स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था।
दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन २७ मंदिरों को तोड दिया।विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया। तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता।
अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की।इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है।
कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया।
एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" चुना।
कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" घोडे पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक घोडे ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर कई बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया।
इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक घोडे पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा।
वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. *धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं।
हर हर महादेव
आधार लिंक का कमाल
💡💡💡💡* कड़क सच* 💡💡💡💡
2014-15 तक केवल उत्तराखंड में 2 लाख 21 हजार आठ सौ मुस्लिम छात्र सरकारी स्कॉलरशिप पा रहे थे. आधार से लिंक होते ही इनकी संख्या गिरकर केवल 26 हजार 440 रह गई. यानी लगभग 88 फीसदी मुस्लिम छात्रों की संख्या कम हो गई*. ये वो स्कॉलरशिप है जो बीपीएल यानि बेहद गरीब परिवारों के छात्रों को दी जाती है. सरकार उल छात्रों के लिए भी प्रावधान लायी, जिनके पास आधार नहीं है. ऐसी छात्रों को भी स्कॉलरशिप का फायदा मिल रहा है, लेकिन इसके लिए उन्हें जिलाधिकारी से सत्यापन करवाना जरूरी है. लेकिन सत्यापन हो कैसे, जब वो छात्र हैं ही नहीं.
*फर्जी मदरसे, फर्जी छात्र, और सरकारी पैसों की लूट !*
फर्जी नामों के आधार पर बरसों से जनता के पैसों की लूट हो रही थी. ये तो कुछ भी नहीं, और सुनिए. छात्र तो छोड़िये, यहाँ तो कई मदरसे भी केवल कागजों पर चल रहे थे. असलियत में कई मदरसे थे ही नहीं और ना ही इनमे कोई छात्र पढ़ते थे. बस केवल फर्जी छात्रों के नाम भेजकर आराम से सरकारी फंड हासिल कर रहे थे.
हैरत की बात तो ये है कि उत्तराखंड के *13 जिलों में से 6 जिलों में तो एक भी मुसलमान छात्र स्कॉलरशिप लेने नहीं आया*. सबसे ज्यादा लूट हरिद्वार जिले में चल रही थी. इसके बाद ऊधमसिंहनगर, देहरादून और नैनीताल जिलों के नंबर आते हैं.
*जिले की आबादी से भी ज्यादा बच्चे ?*
अभी और सुनिए, कुछ जिलों में अब तक जितने मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप दी जा रही थी, उतनी तो उन जिलों की कुल आबादी भी नहीं है. जितनी आबादी नहीं है, उससे भी ज्यादा छात्रों के नाम पर मदरसे बरसों से जनता के पैसों की लूट कर रहे थे. कांग्रेस तुष्टिकरण के चलते ये सब होने दे रही थी और शायद अपना कमीशन भी लेती हो.
*बीजेपी सरकार*आने के बाद इस घोटाले पर नकेल कसनी शुरू कर दी गई, तो एकदम से *हामिद अंसारी*जैसों को असुरक्षित महसूस होने लगा. बहरहाल अब जिला प्रशासन को इस घोटाले के दोषियों की लिस्ट तैयार करने और उन पर कार्रवाई के आदेश दिए गए हैं. मदरसे के लुटेरों की धर-पकड़ शुरू हो गयी है, अंदेशा है कि इन्हे सजा तो होगी ही, साथ ही इनसे लूटा हुआ पैसा भी निकलवाया जाएगा.
यूपी में भी इसीलिए है सारी दिक्कत
उत्तर प्रदेश में तो और भी काफी कुछ चल रहा है. सरकारी पैसों की लूट वहां भी ऐसे ही की जा रही है, साथ ही खुफिया एजेंसियों ने ये भी अलर्ट दिया है कि कई मदरसों में बच्चों को कट्टरपंथी शिक्षा भी दी जा रही है. इस तरह की गड़बड़ियों को देखते हुए सीएम योगी ने सभी मदरसों का रजिस्ट्रेशन जरूरी कर दिया है. राज्य में कई मदरसे बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे हैं, उन्हें फंड कहाँ से आता है, इसकी किसी को कोई जानकारी तक नहीं है.
इन मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, इस पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता. जबकि ऐसे छात्रों को लगातार अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के तहत तमाम फायदे मिलते रहते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में चल रहे लगभग *800 मदरसों पर प्रतिवर्ष 400 करोड़ रुपये खर्च करती ह*ै. मगर हैरत की बात है कि इसका एक बड़ा हिस्सा छात्रों तक पहुंचने की जगह उन लोगों की जेब में जा रहा है, जिन्हें लेकर हामिद अंसारी जैसे लोग परेशान हो रहे हैं.
आधार लिंक का कमाल
💡💡💡💡* कड़क सच* 💡💡💡💡
2014-15 तक केवल उत्तराखंड में 2 लाख 21 हजार आठ सौ मुस्लिम छात्र सरकारी स्कॉलरशिप पा रहे थे. आधार से लिंक होते ही इनकी संख्या गिरकर केवल 26 हजार 440 रह गई. यानी लगभग 88 फीसदी मुस्लिम छात्रों की संख्या कम हो गई*. ये वो स्कॉलरशिप है जो बीपीएल यानि बेहद गरीब परिवारों के छात्रों को दी जाती है. सरकार उल छात्रों के लिए भी प्रावधान लायी, जिनके पास आधार नहीं है. ऐसी छात्रों को भी स्कॉलरशिप का फायदा मिल रहा है, लेकिन इसके लिए उन्हें जिलाधिकारी से सत्यापन करवाना जरूरी है. लेकिन सत्यापन हो कैसे, जब वो छात्र हैं ही नहीं.
*फर्जी मदरसे, फर्जी छात्र, और सरकारी पैसों की लूट !*
फर्जी नामों के आधार पर बरसों से जनता के पैसों की लूट हो रही थी. ये तो कुछ भी नहीं, और सुनिए. छात्र तो छोड़िये, यहाँ तो कई मदरसे भी केवल कागजों पर चल रहे थे. असलियत में कई मदरसे थे ही नहीं और ना ही इनमे कोई छात्र पढ़ते थे. बस केवल फर्जी छात्रों के नाम भेजकर आराम से सरकारी फंड हासिल कर रहे थे.
हैरत की बात तो ये है कि उत्तराखंड के *13 जिलों में से 6 जिलों में तो एक भी मुसलमान छात्र स्कॉलरशिप लेने नहीं आया*. सबसे ज्यादा लूट हरिद्वार जिले में चल रही थी. इसके बाद ऊधमसिंहनगर, देहरादून और नैनीताल जिलों के नंबर आते हैं.
*जिले की आबादी से भी ज्यादा बच्चे ?*
अभी और सुनिए, कुछ जिलों में अब तक जितने मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप दी जा रही थी, उतनी तो उन जिलों की कुल आबादी भी नहीं है. जितनी आबादी नहीं है, उससे भी ज्यादा छात्रों के नाम पर मदरसे बरसों से जनता के पैसों की लूट कर रहे थे. कांग्रेस तुष्टिकरण के चलते ये सब होने दे रही थी और शायद अपना कमीशन भी लेती हो.
*बीजेपी सरकार*आने के बाद इस घोटाले पर नकेल कसनी शुरू कर दी गई, तो एकदम से *हामिद अंसारी*जैसों को असुरक्षित महसूस होने लगा. बहरहाल अब जिला प्रशासन को इस घोटाले के दोषियों की लिस्ट तैयार करने और उन पर कार्रवाई के आदेश दिए गए हैं. मदरसे के लुटेरों की धर-पकड़ शुरू हो गयी है, अंदेशा है कि इन्हे सजा तो होगी ही, साथ ही इनसे लूटा हुआ पैसा भी निकलवाया जाएगा.
यूपी में भी इसीलिए है सारी दिक्कत
उत्तर प्रदेश में तो और भी काफी कुछ चल रहा है. सरकारी पैसों की लूट वहां भी ऐसे ही की जा रही है, साथ ही खुफिया एजेंसियों ने ये भी अलर्ट दिया है कि कई मदरसों में बच्चों को कट्टरपंथी शिक्षा भी दी जा रही है. इस तरह की गड़बड़ियों को देखते हुए सीएम योगी ने सभी मदरसों का रजिस्ट्रेशन जरूरी कर दिया है. राज्य में कई मदरसे बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे हैं, उन्हें फंड कहाँ से आता है, इसकी किसी को कोई जानकारी तक नहीं है.
इन मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, इस पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता. जबकि ऐसे छात्रों को लगातार अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के तहत तमाम फायदे मिलते रहते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में चल रहे लगभग *800 मदरसों पर प्रतिवर्ष 400 करोड़ रुपये खर्च करती ह*ै. मगर हैरत की बात है कि इसका एक बड़ा हिस्सा छात्रों तक पहुंचने की जगह उन लोगों की जेब में जा रहा है, जिन्हें लेकर हामिद अंसारी जैसे लोग परेशान हो रहे हैं.